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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    यदि॑ प्रे॒युर्दे॑वपु॒रा ब्रह्म॒ वर्मा॑णि चक्रि॒रे। त॑नू॒पानं॑ परि॒पाणं॑ कृण्वा॒ना यदु॑पोचि॒रे सर्वं॒ तद॑र॒सं कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। प्र॒ऽई॒यु: । दे॒व॒ऽपु॒रा: । ब्रह्म॑ । वर्मा॑णि । च॒क्रि॒रे । त॒नू॒ऽपान॑म् । प॒रि॒ऽपान॑म् । कृ॒ण्वा॒ना: । यत् । उ॒प॒ऽऊ॒चि॒रे । सर्व॑म् । तत् । अ॒र॒सम् । कृ॒धि॒॥८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि प्रेयुर्देवपुरा ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे। तनूपानं परिपाणं कृण्वाना यदुपोचिरे सर्वं तदरसं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। प्रऽईयु: । देवऽपुरा: । ब्रह्म । वर्माणि । चक्रिरे । तनूऽपानम् । परिऽपानम् । कृण्वाना: । यत् । उपऽऊचिरे । सर्वम् । तत् । अरसम् । कृधि॥८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) जो [शत्रुओं ने] (देवपुराः) राजा के नगरों पर (प्रेयुः) चढ़ाई की है, और (ब्रह्म) हमारे धन को (वर्माणि) अपने रक्षासाधन (चक्रिरे) बनाया है। (तनूपानम्) हमारे शरीर रक्षासाधन को (परिपाणम्) अपना रक्षासाधन (कृण्वानाः) बनाते हुए उन लोगों ने (यत्) जो कुछ (उपोचिरे) डींग मारी है, (तत् सर्वम्) उस सब को (अरसम्) नीरस वा फींका (कृधि) कर दे ॥६॥

    भावार्थ

    राजा उपद्रवी शत्रुओं को जीतकर प्रजा की सदा रक्षा करे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यदि) सम्भावनायाम् (प्रेयुः) इण्−लिट्। प्रजग्मुः (देवपुराः) ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे। पा० ५।४।७४। इति देव+पुर्−अ प्रत्ययः, टाप्। राजनगरीः (ब्रह्म) अस्माकं धनम्−निघ० २।१०। (वर्माणि) स्वकीयानि रक्षासाधनानि (चक्रिरे) आत्मसात्कृतवन्तः (तनूपानम्) अस्माकं शरीरं रक्षासाधनम् (परिपाणम्) स्वकीयं परित्राणम् (कृण्वानाः) आत्मसात्कृतवन्तः (यत्) वचनम् (उपोचिरे) उप हीने। वच−लिट्। कुत्सितमुक्तवन्तः (सर्वम्) सकलम् (तत्) कर्म (अरसम्) असमर्थम् (कृधि) कुरु ॥

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    विषय

    यदि प्रेयुः

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (देवपुरा:) = देवनगरियों में निवास करनेवाले व्यक्ति (प्रेयुः) = [प्र ईयु:] शत्रु पर आक्रमण करने के लिए चलते हैं तो वे (ब्रह्म वर्माणि) = ज्ञान व प्रभु को अपना कवच (चक्रिरे) = करते हैं-ब्रह्म-कवच से ये अपना रक्षण करनेवाले होते हैं। २. ज्ञानपूर्वक तथा प्रभु स्मरणपूर्वक (तनूपानम्) = अपने शरीरों का रक्षण तथा (परिपाणम्) = समन्तात् नगर व राष्ट्र का रक्षण (कृण्वाना:) = करते हुए ये (तत् सर्वम् अरसं कृधि) = उस सबको नि:सार कर देते हैं, (यत्) = जो (उप उचिरे) = हमारे विषय में शत्रुओं ने हीन बातें कही हैं। ['कृधि'-एकवचनं छान्दसम्] | शत्रुओं की डींगों को, अभिमानभरी बातों को उन्हें परास्त करके व्यर्थ कर देते हैं।

    भावार्थ

    देव लोग पहले तो आक्रमण करते ही नहीं। यदि उन्हें आक्रमण करना ही पड़ जाए तो ये प्रभु को अपना कवच बनाते हैं तथा ज्ञानपूर्वक शरीरों व राष्ट्र के रक्षण की व्यवस्था करते हुए शत्रुओं को परास्त करके उनकी अभिमानभरी बातों को नि:सार कर देते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (यदि) यदि [वे अर्थात् अदेव और उसके साथी] (देवपुरा:) पर-राष्ट्र के देवों की पुरियों को (प्रेयुः) प्रयाण कर गये हैं, और ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मा [ मन्त्र ४] को (वर्माणि) निज कवचों के रूप में (चक्रिरे) उन्होंने किया है, [ इस प्रकार ] (तनूपानम, परिपाणम् ) [ निज ] शरीर रक्षा और सर्व रक्षा (कृण्वाना:) करते हुए (यद्) जो उन्होंने (उप ऊचिरे) गुण्तरुप में घोषित किया है (तत्) उस (सर्वम् ) सबको ( अरसम कृधि) हे सम्राट् ! [मन्त्र ५] तु सुखा दे, नीररा कर दे, निर्वीय कर दे।

    टिप्पणी

    [प्रेयु:= निराश्रितरूप में प्रयाण, Refugees रूप में पर-राष्ट्राश्रय के लिए प्रयाण।]

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    विषय

    सैनिकों और सेनापतियों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    राजा सेनापति को आज्ञा देता है कि—सेनापते ! (यदि) यदि (देवपुराः) देव अर्थात् विद्वान्, नगरवासी, या विद्वान् ब्राह्मण लोग जो अपने (ब्रह्म) वेद ज्ञान वा धन को (वर्माणि चक्रिरे) अपना कवच बनाये हुए हैं वे (यदि प्र-ईयुः) यदि आयें तो उनको और जो (तनूपानं) अपनी शरीर की रक्षा के निमित्त कवच धारण करते हुए, और (परि-पाणं कृण्वानाः) मद्य आदि उत्तेजक पदार्थ का पान करते हुए (यक्ष् उप-ऊचिरे) जो कुछ कहते और डींगें मारते हैं (तत् सर्वं) उस सबको (अरसं कृधि) निर्बल कर, उनका वश मत चलने दे !

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १, २ अग्निर्देवता। ३ विश्वेदेवाः। ४-९ इन्द्रः। २ त्र्यवसाना षट्-पदा जगती। ३, ४ भुरिक् पथ्यापंक्तिः। ६ प्रस्तार पंक्तिः। द्वयुष्णिक् गर्भा पथ्यापंक्तिः। ९ त्र्यवसाना षट्पदा द्व्युष्णिग्गर्भा जगती। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of Enemies

    Meaning

    And if citizens of the towns come forward, if the enemies turn the holy ones or our own tactics into their defence, using our own land and people as their armour and line of defence, and on top of it all boast of themselves to demoralise us, turn all that to naught.

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    Translation

    If they have moved forward against the enlightened ones, have made the prayer (knowledge) their armour, and for making an all round defence for their bodies, whatever they utter, may you make all that powerless.

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    Translation

    O Commanding authority! make powerless all the instigations of those men who gaining protection for their bodies and protection around them instigate the people and also those men who are hypocrites and make the piousness their shield; if they assail the country.

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    Translation

    If they have attacked the strongholds of the King, and made knowledge their shield, gaining protection for their lives, through various resources, make all their vainglorious statements powerless.

    Footnote

    The king addresses this verse to the general of the army.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यदि) सम्भावनायाम् (प्रेयुः) इण्−लिट्। प्रजग्मुः (देवपुराः) ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे। पा० ५।४।७४। इति देव+पुर्−अ प्रत्ययः, टाप्। राजनगरीः (ब्रह्म) अस्माकं धनम्−निघ० २।१०। (वर्माणि) स्वकीयानि रक्षासाधनानि (चक्रिरे) आत्मसात्कृतवन्तः (तनूपानम्) अस्माकं शरीरं रक्षासाधनम् (परिपाणम्) स्वकीयं परित्राणम् (कृण्वानाः) आत्मसात्कृतवन्तः (यत्) वचनम् (उपोचिरे) उप हीने। वच−लिट्। कुत्सितमुक्तवन्तः (सर्वम्) सकलम् (तत्) कर्म (अरसम्) असमर्थम् (कृधि) कुरु ॥

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