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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गरुत्मान ऋषि देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनिवारण का उपाय
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    असु॑राणां दुहि॒तासि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑। दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः संभू॑ता॒ सा च॑कर्थार॒सं वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑राणाम् । दु॒हि॒ता । अ॒सि॒ । सा । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । स्वसा॑ । दि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । सम्ऽभू॑ता । सा । च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुराणां दुहितासि सा देवानामसि स्वसा। दिवस्पृथिव्याः संभूता सा चकर्थारसं विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असुराणाम् । दुहिता । असि । सा । देवानाम् । असि । स्वसा । दिव: । पृथिव्या: । सम्ऽभूता । सा । चकर्थ । अरसम् । विषम् ॥१००.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ओषधि !] (असुराणाम्) श्रेष्ठ बुद्धिमानों की (दुहिता) कामनायें पूरी करनेवाली (असि) है, (सा) सो तू (देवानाम्) उत्तम गुणों की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली (असि) है। (दिवः) सूर्य से और (पृथिव्याः) पृथिवी से (संभूता) उत्पन्न हुई (सा) उस तुझ ने (विषम्) विष को (अरसम्) निर्बल (चकर्थ) कर दिया है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य के ताप और पृथिवी के संयोग से उत्पन्न औषधियों से उपकार होता है, वैसे ही मनुष्य परोपकार करके परस्पर लाभ उठावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(असुराणाम्) प्रज्ञावताम्−निरु० १०।३४। (दुहिता) अ० ५।१०।१३। कामानां पूरयित्री (असि) (स्वसा) अ० ५।५।१। सु+अस दीप्तौ−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री। स्वसा सुअसा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० २१।३२। (दिवः) आदित्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (सम्भूता) उत्पन्ना (चकर्थ) त्वं कृतवती (अरसम्) निवीर्यम् (विषम्) विषरूपं दुःखम् ॥

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    विषय

    असुराणां दुहिता देवानां स्वसा

    पदार्थ

    १. हे ओषधे! [वल्मीकमृत्तिके,] तू (असुराणाम्) = बलशाली, प्राणवान् पुरुषों के लिए (दुहिता असि) = बल का दोहन करनेवाली है। (सा) = वह तू (देवानां स्वसा असि) = देववृत्ति के पुरुषों की बहिन के समान है, उनका हित करनेवाली है। २. (दिवः पृथिव्याः) = अन्तरिक्ष के जल से व पृथिवी से (सम्भूता) = उत्पन्न-हुई-हुई सा वह तू (विषम् अरसं चकर्थ) = विष को निर्बल कर देती है।

    भावार्थ

    वल्मीकमृत्तिका प्राणशक्ति भरनेवाली है, मानसवृत्ति को के उत्तम बनानेवाली है और विष-प्रभाव को दूर करती है।

    विशेष

    विशेष—इस वल्मीकमृत्तिका प्रयोग से निर्विष शरीरवाला यह प्राणशक्ति व दिव्य-वृत्ति से जीवन को परिपूर्ण करके 'अथर्वाङ्गिरस' बनता है। अगला सूक्त इसी का है।

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    भाषार्थ

    हे उपजीका ! (असुराणाम्) असुरों की (दुहिता) बेटी (असि) तू है, (सा) वह तू (देवानाम्) देवों की (स्वसा) बहिन (असि) है। (दिवः पृथिव्याः) द्युलोक के ताप और प्रकाश, तथा जलतत्व से, तथा पृथिवी के पार्थिवतत्त्व के मेल से (सम्भूता) तू उत्पन्न हुई है, (सा) उस तू ने (विषम्) विष को (अरसम्) नीरस, निर्वीर्य अर्थात् शक्तिरहित (चकर्थ) कर दिया है।

    टिप्पणी

    [कविता के शब्दों में भाव छिपा हुआ है। असुर हैं विनाशक। उपजीका अर्थात् दीमक भी वस्तु के वयस् की हानि करती है। दोनों के गुण समान है। अतः इन में जनक-जन्य भाव है। देव हैं दिव्यगुणी, और उपजीका अर्थात् दीमक भी दिव्यगुणों से सम्पन्न बल्मीक-मृत्तिका को उत्पन्न कर, तद्द्वारा विष का विनाश करती है। दोनों में दिव्यता समान है। इस दिव्यतागुण की समानता से देवों और दीमक को भाई-बहिन कहा है।]

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    विषय

    विष चिकित्सा।

    भावार्थ

    हे ओषधे ! तू (असुराणाम्) बलशाली प्राणवान् पुरुषों के के लिये (दुहिता) बल, रस का दोहन करने वाली है, (सा) वह तू (देवानाम्) देव, विद्वान् पुरुषों की (स्वसा) उत्तम रूप से प्रकाश करने वाली है। तू (दिवः) द्युलोक के प्रकाश और (पृथिव्याः) पृथिवी से (सं-भूता) उत्पन्न हुई है (सा) वह तू (विषम्) विषको (अरसं चकर्थ) निर्बल करती है।

    टिप्पणी

    ग्रीफिथ के मत से यह सिलाची नाम औषधि है। सायण के मत से यह वल्मीक की मिट्टी है। (अथर्व—५। ५। १) में “सिलाची नाम वा असि सा देवानामसि स्वसा।” इसी ओषधि के इस सूक्त में स्परणी, अरुन्धती, निष्कृति, कानीना, कन्यला आदि नाम दिये हैं। उस प्रसंग में कोशिक ने लाख को दूध में पकाकर शस्त्र-व्रण आदि की चिकित्सार्थ पान करने की विधि लिखी है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Antidote to Poison

    Meaning

    O herbal antidote of poison, you are the product of natural energies and gift of vibrant scholars. You are the sister, equal, of the brilliancies of nature in efficacy. O gift of the sun and earth, render the poison ineffective.

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    Translation

    You me the daughter of life-savers (asura) and sister of the enlightened ones. You have sprung from sky and earth; as such, may you make the poison powerless.

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    Translation

    That herb that makes the power of poison ineffectual is the daughter of clouds, that is the sister of sun-rays and that is the product of rain and earth.

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    Translation

    O medicine, thou art the fulfiller of the desires of the noble, wise men, the displayer of fine qualities. Thou which hast sprung from the warmth of the Sun, and the Earth, hast robbed the poison of its power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(असुराणाम्) प्रज्ञावताम्−निरु० १०।३४। (दुहिता) अ० ५।१०।१३। कामानां पूरयित्री (असि) (स्वसा) अ० ५।५।१। सु+अस दीप्तौ−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री। स्वसा सुअसा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० २१।३२। (दिवः) आदित्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (सम्भूता) उत्पन्ना (चकर्थ) त्वं कृतवती (अरसम्) निवीर्यम् (विषम्) विषरूपं दुःखम् ॥

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