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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    ऋषिः - च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥ देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलवर्धक सूक्त
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    आ वृ॑षायस्व श्वसिहि॒ वर्ध॑स्व प्र॒थय॑स्व च। य॑था॒ङ्गं व॑र्धतां॒ शेप॒स्तेन॑ यो॒षित॒मिज्ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वृ॒ष॒ऽय॒स्व॒ । श्व॒सि॒हि । वर्ध॑स्व । प्र॒थय॑स्व । च॒ । य॒था॒ऽअ॒ङ्गम् । व॒र्ध॒ता॒म् । शेप॑: । तेन॑ । यो॒षित॑म् । इत् । ज॒हि॒ ॥१०१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वृषायस्व श्वसिहि वर्धस्व प्रथयस्व च। यथाङ्गं वर्धतां शेपस्तेन योषितमिज्जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । वृषऽयस्व । श्वसिहि । वर्धस्व । प्रथयस्व । च । यथाऽअङ्गम् । वर्धताम् । शेप: । तेन । योषितम् । इत् । जहि ॥१०१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (आ) भले प्रकार (वृषायस्व) इन्द्र, बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष के समान आचरण कर, (श्वसिहि) जीता रह, (वर्धस्व) बढ़ती कर (च) और [हमें] (प्रथयस्य) फैला। (यथाङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग में [तेरा] (शेपः) सामर्थ्य (वर्धताम्) बढ़े, (तेन) इसलिये (योषितम्) सेवनीय नीति को (इत्) ही (जहि) तू प्राप्त हो ॥१॥

    भावार्थ

    राजा पुरुषार्थपूर्वक अपनी और प्रजा की उन्नति में सदा तत्पर रहे ॥१॥ राज्य की बढ़ती के चार अङ्ग वा उपाय यह हैं [सामदाने भेददण्डावित्युपायचतुष्टम्−अमर १८।२०] १−साम, प्रियवचन, २−दान, धन देना, ३−भेद, शत्रुओं में फूट कर देना, ४−दण्ड ॥

    टिप्पणी

    १−(आ) समन्तात् (वृषायस्य) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति वृषन्−क्यङ्। वृषा इन्द्र इवाचर (श्वसिहि) श्वस प्राणने। प्राणिहि। बलवान् भव (वर्धस्व) बुद्धिं कुरु (प्रथयस्य) विस्तारय प्रजागणान् (च) (यथाङ्गम्) अङ्गान्यनतिक्रम्य। सर्वाङ्गम् (वर्धताम्) वृद्धिं प्राप्नोतु (शेपः) अ० ४।३७।७। शेते वर्तते शरीरे तत् सामर्थ्यम् (तेन) कारणेन (योषितम्) अ० १।१७।१। युष सेवने−इति। सेव्यां नीतिम् (इत्) एव (जहि) हन गतौ। गच्छ ॥

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    विषय

    सामर्थ्य नीति:

    पदार्थ

    १. (आवृषायस्व) = तू सब प्रकार से शक्तिशाली पुरुष की भाँति आचरण कर, (श्वसिहि) = प्राणधारण करनेवाला हो, (वर्धस्व) = वृद्धि को प्राप्त हो, च-और प्रथयस्व-सब अङ्गों की शक्ति का विस्तार कर। २. यथाङ्गम्-अङ्ग-अङ्ग में प्रत्येक अङ्ग में [यथा वीप्सायाम्]  शेष: तेरा सामर्थ्य बढ़े। तेन-उस सामर्थ्य के साथ, योषितम्-[युष सेवने] सेवनौय नीति को, इत् जहि-निश्चय से प्राप्त हो।

    भावार्थ

    राजा स्वयं शक्तिशाली बने। अपने सामर्थ्य को बढ़ाता हुआ यह नीतिपूर्वक चले। यही राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने का उपाय है।

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    भाषार्थ

    हे पुरुष ! (श्वसिहि) तू प्राणशक्तिसम्पन्न बन, (आवृषायस्व) और शक्तिशाली वृषभ के सदृश शक्तिशाली बन, (वर्धस्व) शरीर से बढ़, (प्रथयस्व) और परिवार को बढ़ा। (यथाङ्गम्) अन्य अङ्गों के सदृश (शेपः) तेरी प्रजनन इन्द्रिय (वर्धताम्) बढ़े, (तेन) उस बढ़ी इन्द्रिय के साथ (योषितम्) प्रीति करनेवाली पत्नी को (इत्) ही (नहीं) जाया कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में गृहस्थसम्बन्धी उत्तम शिक्षा दी गयी है। (१) श्वसिहि (श्वस प्राणने, अदादिः) प्राणशक्ति का सञ्चय शरीर में कर। (२) और शक्तिशाली बैल के सदृश शक्तिशाली बन। (३) अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों को दृष्टि से बढ़। (४) फिर अपने परिवार को फैला। (५) परन्तु परिवार फैलाने से पूर्व देख ले कि तेरी प्रजनन इन्द्रिय परिवार फैलाने योग्य अभी हुई है या नहीं। (६) यदि इस योग्य हो गयी हो तो निज पत्नी का ही प्रसङ्ग किया कर। अन्य स्त्रियों का कीर्तन तक भी नहीं करना, “नान्यासां कोर्तयाश्च" (अथर्व ७।३८।२; ३९।४) योषित् =जुषी प्रीतिसेवनयोः (तुदादिः) जो प्रीति करे और सेवा करे वह पत्नी (उणा० १।९७)। जहि= हन हिंसागत्योः, गत्यर्थ अभिप्रेत है। जहि=गच्छ (सायण)।]

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    विषय

    पुष्ट प्रजनन अंग होने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे पुरुष तू (वृषायस्व) सब प्रकार से वीर्यसेचन सें समर्थ हो (श्वसिहि) प्राण को ऊपर खैंच और (वर्धस्व) शरीर में खूब पुष्ट हो, (प्रथयस्व च) और अपने अंगों को भी बड़ा कर। इतना हृष्ट पुष्ट हो कि (यथा) जिससे (शेपः, अङ्गम्) कामांग भी (वर्धताम्) वृद्धि को प्राप्त हो। (तेन) उस अंग से (योषितम्) अपनी स्त्री के पास (इत्) भी (जहि) जा, सेचनसमर्थ हो। ऊपर श्वास लेकर अंगों को पुष्ट करो, जब कामांगों की पर्याप्त वृद्धि हो चुके तब युवकों को गृहस्थ धर्म से पुत्रोत्पत्ति करनी चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शेपप्रथनकामोऽथर्वाङ्गिरा ऋषिः। ब्रह्मणस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strength and Expansion

    Meaning

    O man, be strong and virile, breathe deep, grow, and let your body and limbs grow strong too. And as you and your body limbs grow, so let your sphere of activity too expand so that you master and win whatever is your cherished love.

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    Subject

    Brahmanaspati

    Translation

    Behave like a strong bull. Breathe in vitality. Grow and spread, So that your male organ be developed to the full. With that go to the woman confidently.

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    Translation

    O man! be strong through practice of continee, gain vitality through vital air, strengthen your body and invigorate extensively your limbs, so that the genitive organ of yours develop in proportion to your body and with that you attend your wife in sexual function.

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    Translation

    O King, behave nicely like a great man, be strong, make progress, advance thy subjects. Let thy strength develop in each organ, and may thou.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(आ) समन्तात् (वृषायस्य) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति वृषन्−क्यङ्। वृषा इन्द्र इवाचर (श्वसिहि) श्वस प्राणने। प्राणिहि। बलवान् भव (वर्धस्व) बुद्धिं कुरु (प्रथयस्य) विस्तारय प्रजागणान् (च) (यथाङ्गम्) अङ्गान्यनतिक्रम्य। सर्वाङ्गम् (वर्धताम्) वृद्धिं प्राप्नोतु (शेपः) अ० ४।३७।७। शेते वर्तते शरीरे तत् सामर्थ्यम् (तेन) कारणेन (योषितम्) अ० १।१७।१। युष सेवने−इति। सेव्यां नीतिम् (इत्) एव (जहि) हन गतौ। गच्छ ॥

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