अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
यथा॒ मनो॑ मनस्के॒तैः प॑रा॒पत॑त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त॒ मन॒सोऽनु॑ प्रवा॒य्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । मन॑: । म॒न॒:ऽके॒तै: । प॒रा॒ऽपत॑ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । मन॑स: । अनु॑ । प्र॒ऽवा॒य्य᳡म् ॥१०५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा मनो मनस्केतैः परापतत्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत मनसोऽनु प्रवाय्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । मन: । मन:ऽकेतै: । पराऽपतति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । मनस: । अनु । प्रऽवाय्यम् ॥१०५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महिमा पाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (मनः) मन (मनस्केतैः) मन के विषयों के साथ (आशुमत्) शीघ्रता से (परापतति) आगे बढ़ता जाता है। (एव) वैसे ही [हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (कासे) ज्ञान वा उपाय के बीच (मनसः) मन के (प्रवाय्यम् अनु) प्राप्ति योग्य देश की ओर (प्र पत) आगे बढ़ ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य मन की कुवृत्तियों को रोक कर ज्ञानपूर्वक शुभकर्म में शीघ्र लगावे ॥१॥
टिप्पणी
१−(यथा) येन प्रकारेण (मनः) मननसाधकमिन्द्रियम् (मनस्केतैः) कित ज्ञाने−घञ्। अन्तःकरणस्य ज्ञायमानैर्विषयैः सह (परापतति) आभिमुख्येन गच्छति (आशुमत्) यथा तथा। शीघ्रम् (एव) एवम् (त्वम्) हे मनुष्य त्वम् (कासे) कस गतौ−घञ्। ज्ञाने। उपाये (मनसः) अन्तःकरणस्य (अनु) अनुलक्ष्य (प्रवाय्यम्) भय्यप्रवय्ये च च्छन्दसि। पा० ६।१।८३। इति प्र+वा गतौ−यत्, अयादेशश्च, छान्दसो दीर्घः। प्रवय्यं प्रगन्तव्यं देशम्। अवधिम् ॥
विषय
कासा का दूर गमन [यथा मनः]
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (मन:) = मन (मनस्केतै:) = [मनसा बुद्धिवृत्या] बुद्धिवृत्ति से ज्ञायमान विषयों के साथ (आशुमत्) = शीघ्रता से युक्त हुआ-हुआ (परापतति) = दूर-दूर जाता है (एव) = इसीप्रकार हे (कासे) = श्लेष्मरोग! (त्वम्) = तू (मनसः प्रवाय्यम्) = मन की प्रगन्तव्य अवधि को (अनु प्रपत) = लक्ष्य करके गतिवाला हो-तू मनोवेग से इस पुरुष से निकलकर दूर देश में चला जा।
भावार्थ
जैसे मन शीघ्रता से दूर देश में चला जाता है, उसी प्रकार यह खाँसी हमें छोड़कर दूर चली जाए।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (आशुमत्) वेगयुक्त (मनः) मन (मनस्केतै:) निज मानसिक ज्ञानों द्वारा (परापतति) दूर के प्रदेशों तक गति करता है, (एव) इसी प्रकार (कासे) हे शासन व्यवस्था ! (त्वम्) तू (मनसः) मन के (प्रवाय्यम्) दूर के गन्तव्य प्रदेशों के (अनु) अनुरूप (प्रपत) दूर तक गति कर, पहुंच। पत= पत्लृ गतौ (भ्वादिः)।
टिप्पणी
[मन्त्र में "कासा" का वर्णन है "कासा" का प्रसिद्ध अर्थ है "खांसी"; कासृ शब्दकुत्सायाम् (भ्वादिः)। परन्तु सूक्त में खांसी अर्थ उपपन्न नहीं प्रतीत होता। "कासा" का अर्थ "शासन व्यवस्था' भी सम्भव है जोकि सूक्त में अधिक समन्वित होता है। "कासा" =कसि गतिशासनयोः, कस इत्येके (अदादिः)। कस+ घञ् + टाप्= शासन व्यवस्था वर्तमान में जैसे भिन्न-भिन्न राज्यों की दृष्टि से समुद्र और वायुमण्डल में शासन व्यवस्था लागू है, वैसे उस दूर की ऊर्ध्वदिशा में भी शासन व्यवस्था लागू होनी चाहिये जहां तक कि मनुष्य पहुंच सकता है और मन की वास्तविक गति या पहुंच सम्भव है। ताकि मनुष्यों में वहां तक पहुंच कर भी युद्ध न हो सके, यह मन्त्र का अभिप्राय है। वर्तमान काल के "Starwar" को रोकना, इस व्यापी शासन व्यवस्था द्वारा सम्भव हो सकता है ]।
विषय
‘कासा’ चिति शक्ति की एकाग्रता का उपदेश।
भावार्थ
‘कासा’ नाम चितिशक्ति को एकाग्र करने के क्रियात्मक उपाय बतलाते हैं—(यथा) जिस प्रकार (मनः) संकल्प विकल्प करने वाला मन (आशुमत्) अति वेगवान् होकर (मनस्केतैः) मन द्वारा चिन्तन करने योग्य विषयों के साथ (परा पतति) दूर चला जाता है। (एव) उसी प्रकार हे (कासे) प्रकाशमान चितिशक्ते ! (त्वम्) तू भी (मनसः) मन के (प्र-वाय्यम्) चिन्तनीय विषयों के (अनु प्र-पत) साथ ही साथ जा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उन्मोचन ऋषिः। कासा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Of Flight and Progress
Meaning
Just as the mind flies with the objects of its love at its highest speed, so do you, O man, fly forth at the speed of mind to the reachable goal in search of knowledge.
Subject
Kasa : Cough .
Translation
As the mind flies fast far away by the objects of thought, so, O cough, may you run away following the destination (flight) of mind.
Translation
As the swift mind flies forth with its mental projections in the same manner let this cough flee away rapidly following the flight of mind.
Translation
Rapidly as the fancy flies forth with conceptions of the mind, so following the fancy's flight, O mental vigor, flee rapidly away!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यथा) येन प्रकारेण (मनः) मननसाधकमिन्द्रियम् (मनस्केतैः) कित ज्ञाने−घञ्। अन्तःकरणस्य ज्ञायमानैर्विषयैः सह (परापतति) आभिमुख्येन गच्छति (आशुमत्) यथा तथा। शीघ्रम् (एव) एवम् (त्वम्) हे मनुष्य त्वम् (कासे) कस गतौ−घञ्। ज्ञाने। उपाये (मनसः) अन्तःकरणस्य (अनु) अनुलक्ष्य (प्रवाय्यम्) भय्यप्रवय्ये च च्छन्दसि। पा० ६।१।८३। इति प्र+वा गतौ−यत्, अयादेशश्च, छान्दसो दीर्घः। प्रवय्यं प्रगन्तव्यं देशम्। अवधिम् ॥
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