अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
यथा॒ बाणः॒ सुसं॑शितः परा॒पत॑त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त पृथि॒व्या अनु॑ सं॒वत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । बाण॑: । सुऽसं॑शित: । प॒रा॒ऽपत॑ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । पृ॒थि॒व्या: । अनु॑ । स॒म्ऽवत॑म् ॥१०५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा बाणः सुसंशितः परापतत्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत पृथिव्या अनु संवतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । बाण: । सुऽसंशित: । पराऽपतति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । पृथिव्या: । अनु । सम्ऽवतम् ॥१०५.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महिमा पाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (सुसंशितः) यथाविधि तीक्ष्ण किया हुआ (बाणः) बाण वा शब्द (आशुमत्) वेग से (परापतति) आगे बढ़ा जाता है। (एव) वैसे ही [हे मनुष्य !] (त्वम्) तू (कासे) ज्ञान वा उपाय के बीच (पृथिव्याः) पृथिवी के (संवतम् अनु) यथावत् सेवनीय देश की ओर (प्रपत) आगे बढ़ ॥२॥
भावार्थ
जिस प्रकार यथावत् सन्धान किया हुआ बाण और ठीक-ठीक बोला गया शब्द लक्ष्य पर शीघ्र पहुँचता है, वैसे ही मनुष्य यथावत् ज्ञान और उपाय से पृथिवी पर अभीष्ट पदार्थ को शीघ्र प्राप्त करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(बाणः) अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति वण शब्दे−घञ्। वाणो वाक्−निघ० १।११। शरः। शब्दः (सुसंशितः) शो तनूकरणे−क्त। सुष्ठु सम्यक् तीक्ष्णीकृतः (पृथिव्याः) भूम्याः (संवतम्) अ० ६।२९।३। सम्+वन संभक्तौ−क्विप्, नकारलोपे तुक्। सम्यग् वननीयं सेवनीयं देशम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥
विषय
यथा बाण:
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (सुसंशित:) = सम्यक् तीक्ष्ण किया हुआ (बाण:) = बाण धनुष से विमुक्त हुआ हुआ (आशुमत् परापतति)-= शीघ्र दूर जाता है, (एव) = इसीप्रकार हे (कासे) = श्लेष्मरोग! (त्वम्) = तू (पृथिव्याः) = पृथिवी के (संवतम्) = निम्न प्रदेश को (अनु प्रपत) = लक्ष्य करके गतिवाला हो, बाण के वेग सेतु पाताल में जा।
भावार्थ
जैसे धनुष् से छोड़ा बाण शीघ्रता से दूर जाता है, वैसे ही यह कासारोग हमसे दूर चला जाए।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (सु संशितः) उत्तम साधित (वाण:) शब्द (आशुमत्) शीघ्र (परा पतति) दूर के प्रदेशों तक गति करता है, पहुंच जाता है, (एव= एवम्) इस प्रकार (कासे) हे शासन व्यवस्था ! (त्वम्) तू (पृथिव्याः) पृथिवी की (संवतम्) संप्राप्ति की (अनु) अनुकुलता तक (प्र पत) गति कर, पहुंच।
टिप्पणी
[वाणः=शब्दः। यथा “वण शब्दार्थ:" (भ्वादिः), अर्थात् वाणी। शब्द या वाणी, यन्त्रों द्वारा सुसाधित होकर शीघ्र दूर-दूर के प्रदेशों तक पहुंच जाती है, जैसे कि टेलीफोन तथा रेडियो और टेलीविजन द्वारा वर्तमानकाल में पहुंच रही है। इसी प्रकार शासन व्यवस्था को भी, समग्र पृथिवी पर, जहां तक पृथिवी की सम्यक्-प्राप्ति१ है लागू करना चाहिये। संवतम्= सम्प्राप्तम् (सायण, अथर्व ६।२९।३)।] [१. पृथिवी सब ओर से समुद्रों से घिरी हुई है, इन समुद्रों के भीतर पृथिवी की सम्प्राप्ति होती है। वेदों में समग्र पृथिवी पर शासन व्यवस्था को लागू करने वाले को "एकराट्" तथा "जनराद्" कहते हैं।]
विषय
‘कासा’ चिति शक्ति की एकाग्रता का उपदेश।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (सु-संशितः बाणः) तीक्ष्ण बाण, (आशुमत्) वेगवान् होकर (परा पतति) दूर जा गिरता है, हे (कासे) चित्तिशक्ने ! (त्वम्) तू भी (एव) उसी प्रकार (पृथिव्याः संवतम्) पृथिवी देह के उत्तम प्रदेश की ओर (अनु प्र पत) गति कर, धारणा द्वारा विशेष देश में स्थिर हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उन्मोचन ऋषिः। कासा देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Of Flight and Progress
Meaning
Just as the arrow flies forth at its sharpest and at the fastest, so do you, O man, fly forth at the speed of mind to the ends of the earth.
Translation
Just as a well-sharpened arrow flies fast far away, so, O cough, may you run away to the lowest end of the earth.
Translation
As the keenly sharpened swift arrow flies in the same manner let this cough flee away to the region beyond the earth.
Translation
Rapidly as an arrow flies away with keenly sharpened point, so swiftly flee away, so, O mental vigor over the region of the earth!
Footnote
Griffith translates कास as cough, Pt. Jaidev Vidyalankar as mental vigor, Pt. Khem Karan Das Trivedi as knowledge or device.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(बाणः) अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति वण शब्दे−घञ्। वाणो वाक्−निघ० १।११। शरः। शब्दः (सुसंशितः) शो तनूकरणे−क्त। सुष्ठु सम्यक् तीक्ष्णीकृतः (पृथिव्याः) भूम्याः (संवतम्) अ० ६।२९।३। सम्+वन संभक्तौ−क्विप्, नकारलोपे तुक्। सम्यग् वननीयं सेवनीयं देशम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥
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