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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शौनक् देवता - मेधा छन्दः - उरोबृहती सूक्तम् - मेधावर्धन सूक्त
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    मे॒धाम॒हं प्र॑थ॒मां ब्रह्म॑ण्वतीं॒ ब्रह्म॑जूता॒मृषि॑ष्टुताम्। प्रपी॑तां ब्रह्मचा॒रिभि॑र्दे॒वाना॒मव॑से हुवे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मे॒धाम् । अ॒हम् । प्र॒थ॒माम् । ब्रह्म॑णऽवतीम् । ब्रह्म॑ऽजूताम् । ऋषि॑ऽस्तुताम् । प्रऽपी॑ताम् । ब्र॒ह्म॒चा॒रिऽभि॑: । दे॒वाना॑म् । अव॑से । हु॒वे॒ ॥१०८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मेधामहं प्रथमां ब्रह्मण्वतीं ब्रह्मजूतामृषिष्टुताम्। प्रपीतां ब्रह्मचारिभिर्देवानामवसे हुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मेधाम् । अहम् । प्रथमाम् । ब्रह्मणऽवतीम् । ब्रह्मऽजूताम् । ऋषिऽस्तुताम् । प्रऽपीताम् । ब्रह्मचारिऽभि: । देवानाम् । अवसे । हुवे ॥१०८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बुद्धि और धन की प्राप्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (प्रथमाम्) पहिली [अति श्रेष्ठ] (ब्रह्मण्वतीम्) ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, वा वेद वा अन्न वा धन की धारण करनेवाली, (ब्रह्मजूताम्) ब्राह्मणों, ब्रह्मज्ञानियों से प्राप्त वा प्रीति की गयी, (ऋषिष्टुताम्) ऋषियों, वेदार्थ जाननेवाले मुनियों से स्तुति की गई, (ब्रह्मचारिभिः) ब्रह्मचारियों अर्थात् वेदपाठी और वीर्यनिग्राहक पुरुषों से (प्रपीताम्) अच्छे प्रकार पान की गयी (मेधाम्) सत्य धारणा करनेवाली बुद्धि वा संपत्ति को (देवानाम्) दिव्य गुणों की (अवसे) रक्षा के लिये (हुवे) आवाहन करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेद आदि शास्त्र और ऋषि, मुनि, महात्माओं के इतिहासों के विचार से सदा स्मरणवाली बुद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त करके संसार में उन्नति करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(मेधाम्) म० १। सत्यधारणावतीं बुद्धिं सम्पत्तिं वा (प्रथमाम्) श्रेष्ठाम् (ब्रह्मण्वतीम्) मादुपधायाश्च०। पा० ८।२।९। इति मतुपो वत्वम्। अपो नुट्। पा० ८।२।१६। इति नुडागमः। ब्रह्म−अन्नम्−निघ० २।७। धनम्−२।१०। ईश्वरवेदान्नधनैर्युक्ताम् (ब्रह्मजूताम्) जु गतौ प्रीतौ च−क्त। जूतिर्गतिः प्रीतिर्वा देवजूतं देवप्रीतं वा−निरु० १०।२८। ब्राह्मणैः प्राप्तां प्रीतां वा (ऋषिष्टुताम्) ऋषिः−अ० २।६।१। वेदार्थदर्शिभिर्मुनिभिः प्रशंसितम् (प्रपीताम्) प्रपूर्वात् पिबतेः−क्त, घुमास्था०। पा० ६।४।६६। ईत्वम्। कृतपानाम्। सेविताम् (ब्रह्मचारिभिः) ब्रह्म+चर−णिनि। वेदपाठिभिर्वीर्यनिग्रहीतृभिः (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (अवसे) रक्षणाय (हुवे) आह्वयामि ॥

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    विषय

    मेधां प्रपीतां ब्रह्मचारिभिः'

    पदार्थ

    १. (अहं मेधाम्) = मैं मेधा बुद्धि को देवानाम् अवसे हुवे अपने जीवन में दिव्य गुणों के रक्षण के लिए पुकारता हूँ, उस मेधा को जो (प्रथमाम्) = सबसे मुख्य स्थान में स्थित है, (ब्रह्मण्व तीम्) = वेदज्ञानवाली है ब्(रह्मजूताम्) = ज्ञानियों से सेवित हुई है, (ऋषिष्टुताम्) = तत्वद्रष्टाओं से स्तुत हुई है और (ब्रह्मचारिभिः) = ज्ञान का चरण करनेवाले विद्यार्थियों से (प्रपीताम्) = प्रवर्धित हुई है, अथवा पी गई है, सम्यक् ग्रहण की गई है।

    भावार्थ

    बुद्धि हमारे जीवनों में दिव्य गुणों के रक्षण का साधन बनती है। इसी से ज्ञान का वर्धन होता है और 'ज्ञान प्राप्त करना' ही इसकी वृद्धि का साधन बनता है।

     

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    भाषार्थ

    (ब्रह्मण्वतीम्) ब्रह्मसम्बन्ध, अर्थात् आस्तिक (ब्रह्मजूताम्) वेदद्वारा प्रेरित (ऋषिष्टुताम्) ऋषियों द्वारा स्तुत, (ब्रह्मचारिभिः) ब्रह्मचारियों द्वारा (प्रपीताम्) प्रकर्षरूप में पी गई या प्रवर्धित हुई, (प्रथमाम्) श्रेष्ठ (मेधाम्) वेद विद्या सम्बन्धी धारणावती बुद्धि को (हुवे) मैं आह्वान करता हूं, प्राप्त करता हूं (देवानाम्) दिव्यगुणों की (अवसे) रक्षा के लिये।

    टिप्पणी

    [जूताम्= जवति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ) तथा जूति: गतिः प्रीतिः वा (निरुक्त १०।३।२८)। प्रपीताम्= प्र + पा पाने (भ्वादिः), अथवा प्र + ओप्यायी वृद्धौ (भ्वादिः), + प्यायः पी (अष्टा० ६।१।२८)।]

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    विषय

    मेधा का वर्णन।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं मेधा चाहने वाला ब्रह्मचारी, (प्रथमाम्) श्रेष्ठ, सबसे प्रथम, उत्तम गुणवाली, (ब्रह्मण्वतीम्) वेद ज्ञान से युक्त, (ब्रह्म-जूताम्) ब्रह्मज्ञानियों से सेवित, (ऋषि-स्तुताम्) ऋषियों द्वारा प्रशंसा की गई, (ब्रह्म-चारिभिः) ब्रह्मचारियों द्वारा (प्र-पीताम्) खूब उत्तम रीति से पान की गई, (मेघाम्) धारणावती चितिशक्ति का (अवसे) अपनी रक्षा के लिये (हुये) ध्यान करता हूं और उसको अपने पास बुलाता हूँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शौनक ऋषिः। मेधा देवता। ४ अग्निर्देवता। १, ४, ५ अनुष्टुप्, २ उरोबृहती, ३ पथ्या वृहती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Intelligence

    Meaning

    For worship of the divinities and for protection and promotion of divine faculties and achievements, I invoke and inculcate Medha, noble intelligence, first and highest God-given human faculty, treasure trove of divine consciousness and knowledge, adored by Brahmanas, loved by Rshis, and served, valued and developed by Brahmacharis, disciplined young seekers of knowledge.

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    Translation

    I invoke the understanding (medha) the foremost, full of knowledge, inspired by knowledge, praised by seers, and drank to their fill by the seekers of knowledge, for helping the enlightened ones.

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    Translation

    I for the security of virtuous qualities call to my mind and memory the knowledge which is primordial, full of wisdom, God-revealed, grasped and praised by seers and is fully drunk by celibates.

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    Translation

    I invoke for the protection of organs, Intelligence, possessed by highly learned Vedic scholars, loved by the sages, lauded by the seers, and welcomed by the celibates.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(मेधाम्) म० १। सत्यधारणावतीं बुद्धिं सम्पत्तिं वा (प्रथमाम्) श्रेष्ठाम् (ब्रह्मण्वतीम्) मादुपधायाश्च०। पा० ८।२।९। इति मतुपो वत्वम्। अपो नुट्। पा० ८।२।१६। इति नुडागमः। ब्रह्म−अन्नम्−निघ० २।७। धनम्−२।१०। ईश्वरवेदान्नधनैर्युक्ताम् (ब्रह्मजूताम्) जु गतौ प्रीतौ च−क्त। जूतिर्गतिः प्रीतिर्वा देवजूतं देवप्रीतं वा−निरु० १०।२८। ब्राह्मणैः प्राप्तां प्रीतां वा (ऋषिष्टुताम्) ऋषिः−अ० २।६।१। वेदार्थदर्शिभिर्मुनिभिः प्रशंसितम् (प्रपीताम्) प्रपूर्वात् पिबतेः−क्त, घुमास्था०। पा० ६।४।६६। ईत्वम्। कृतपानाम्। सेविताम् (ब्रह्मचारिभिः) ब्रह्म+चर−णिनि। वेदपाठिभिर्वीर्यनिग्रहीतृभिः (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (अवसे) रक्षणाय (हुवे) आह्वयामि ॥

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