अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
असु॑रास्त्वा॒ न्यखनन्दे॒वास्त्वोद॑वप॒न्पुनः॑। वा॒तीकृ॑तस्य भेष॒जीमथो॑ क्षि॒प्तस्य॑ भेष॒जीम् ॥
स्वर सहित पद पाठअसु॑रा: । त्वा॒ । नि । अ॒ख॒न॒न् । दे॒वा: । त्वा॒ । उत् । अ॒व॒प॒न् । पुन॑: । वा॒तीऽकृ॑तस्य । भे॒ष॒जीम् । अथो॒ इति॑ । क्षि॒प्तस्य॑ । भे॒ष॒जीम् ॥१०९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
असुरास्त्वा न्यखनन्देवास्त्वोदवपन्पुनः। वातीकृतस्य भेषजीमथो क्षिप्तस्य भेषजीम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसुरा: । त्वा । नि । अखनन् । देवा: । त्वा । उत् । अवपन् । पुन: । वातीऽकृतस्य । भेषजीम् । अथो इति । क्षिप्तस्य । भेषजीम् ॥१०९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे पिप्पली] (असुराः) बुद्धिमान् पुरुषों ने (वातीकृतस्य) गठिया के रोगी की (भेषजीम्) ओषधी, (अथो) और (क्षिप्तस्य) उन्मत्त की (भेषजीम्) ओषधि (त्वा) तुझको (नि) निरन्तर (अखनन्) खोदा है और (देवाः) व्यवहारकुशल पुरुषों ने (त्वा) तुझको (पुनः) फिर (उत्) उत्तम रीति से (अवपन्) बोया है ॥३॥
भावार्थ
जैसे सद्वैद्य परीक्षा करके पिप्पली आदि ओषधियों को खोदते और बाते और काम में लाते हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष विद्या का सुप्रयोग करते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(असुराः) प्रज्ञावन्तः (त्वा) पिप्पलीम् (नि) निरन्तरम् (अखनन्) खननेन प्राप्तवन्तः (देवाः) व्यवहारकुशलाः (उत्) उत्कर्षेण (अवपन्) टुवप बीजतन्तुसन्ताने। रोपितवन्तः (वातीकृतस्य) वातरोगग्रस्तस्य पुरुषस्य (भेषजीम्) भयनिवर्तिकाम् (अथो) अपि च (क्षिप्तस्य) विक्षिप्तस्य (भेषजीम्) ओषधिम् ॥
विषय
असुरा: देवाः [न्यखनन्, उदवपन्]
पदार्थ
१. (असुराः) = प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले वैद्य (त्वा न्यखनन्) = तुझे खोदते हैं। (देवाः) = रोगों को जीतने की कामनावाले वैद्य (त्वा) = तुझे (पुन: उत् अवपन्) = फिर से बोते हैं। २. उस तुझे जो तू (वातीकृतस्य भेषजीम्) = वातकृत रोगों की भेषज है (अथो) = और (क्षिसस्य) = उन्माद रोग को दूर करनेवाली भेषजम् ओषधि है।
भावार्थ
इस 'वातीकृत तथा क्षिप्त' की भेषजभूत पिप्पली को देव तथा असुर खोदते हैं तथा पुन: बो देते हैं। ये पिप्पली का मूलोच्छेद नहीं होने देते।
भाषार्थ
(वातीकृतस्य) वातविकार द्वारा उत्पन्न रोग की (भेषजीम्) औषध रूप, और (क्षिप्तस्य) चैत-विक्षेप अर्थात् उन्माद या अङ्गविक्षेप रोग की (भेषजीम्) औषध रूप (त्वा) हे पिप्पलो तुझे उद्देश्य कर के, (असुराः) प्राणवान् अर्थात् शरीरबल वालों ने (न्यखनन्) भूमि को खोदा, और (देवाः) व्यवहारी भूमिस्वामियों ने (त्वा) तुझे (पुनः) तदनन्तर (उद् अवपन्) उत्तम बीज को उत्तम विधि से बोया।
टिप्पणी
[मन्त्र में पिप्पली के कृषिकर्म का वर्णन है। बलवान् मजदूर तो भूमि को खोदते हैं, और भूमिस्वामी बीज बोते हैं। उदवपन्= उद् + डुवप् बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः)।]
विषय
पिप्पली औषधि का वर्णन।
भावार्थ
हे पिप्पलि ! (वाती-कृतस्य) तीव्र वात द्वारा पैदा हुए रोग की (भेषजीम्) ओषधि और (क्षिप्तस्य) क्षिप्त—‘अलाउठा’ नामक रोग की (भेषजीम्) उत्तम् औषध (त्वा असुराः नि-अखनन्) तुझको असुर =प्रा ण विद्या के जानने वाले वैद्य लोग निरन्तर खोद लेते हैं और (देवाः) विद्वान् लोग (पुनः) बार बार (उद्-अवपन्) उखाड़ लेते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता पिप्पली, भेषजम् देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Pippali Oshadhi
Meaning
Vibrant and enthusiastic brilliant physicians have planted and dug you out, O Pippali, again and again, since you are the sure cure for patients of wind, distraction of mind and affliction of pain.
Translation
The life-savers (enjoyers) buried you in. Then the enlightened ones dug you out again - you who are the remedy for nervous diseases and the remedy of mental disturbance.
Translation
The physicians and learned men dig out and the druggists root up frequently this herb which is the healing balm of the rheumatic pain and the pain which moves changing its place caused by rheumatism.
Translation
Learned physicians buried thee in earth, the sages again uprooted thee, healer of sickness caused by wind and healer of insanity.
Footnote
Thee: Pippali. In Raj Nighantu,, Bhāvaprakasha and Charak, Samhita the uses of Pippali are mentioned in details. It is spoken of as the healer of fever, bronchitis, cough. It develops intellect and sharpens the appetite. It should be taken with honey or treacle in the ratio of 1 to 2.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(असुराः) प्रज्ञावन्तः (त्वा) पिप्पलीम् (नि) निरन्तरम् (अखनन्) खननेन प्राप्तवन्तः (देवाः) व्यवहारकुशलाः (उत्) उत्कर्षेण (अवपन्) टुवप बीजतन्तुसन्ताने। रोपितवन्तः (वातीकृतस्य) वातरोगग्रस्तस्य पुरुषस्य (भेषजीम्) भयनिवर्तिकाम् (अथो) अपि च (क्षिप्तस्य) विक्षिप्तस्य (भेषजीम्) ओषधिम् ॥
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