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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 119/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कौशिक देवता - वैश्वानरोऽग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
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    वै॑श्वान॒राय॒ प्रति॑ वेदयामि॒ यद्यृ॒णं सं॑ग॒रो दे॒वता॑सु। स ए॒तान्पाशा॑न्वि॒चृतं॑ वेद॒ सर्वा॒नथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒राय॑ । प्रति॑ । वे॒द॒या॒मि॒ । यदि॑ । ऋ॒णम् । स॒म्ऽग॒र: । दे॒वता॑सु । स: । ए॒तान् । पाशा॑न् । वि॒ऽचृत॑म् । वे॒द॒ । सर्वा॑न् । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥११९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानराय प्रति वेदयामि यद्यृणं संगरो देवतासु। स एतान्पाशान्विचृतं वेद सर्वानथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानराय । प्रति । वेदयामि । यदि । ऋणम् । सम्ऽगर: । देवतासु । स: । एतान् । पाशान् । विऽचृतम् । वेद । सर्वान् । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥११९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 119; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वचन के प्रति पालन का उपदेश।

    पदार्थ

    (वैश्वानराय) सब नरों के हितकारी परमेश्वर से (प्रति) प्रत्यक्ष (वेदयामि) निवेदन करता हूँ कि (देवतासु) विद्वानों के विषय [मेरी ओर से] (यत्) जो (ऋणम्) ऋण और (संगरः) प्रण है। (सः) वह परमेश्वर (एतान्) इन (सर्वान्) सब (पाशान्) फन्दों को (विचृतम्) खोल देना (वेद) जानता है, (अथ) सो (पक्वेन सह) उस पक्के [दृढ़] स्वभाववाले परमेश्वर के साथ (सम् भवेम) हम बने रहें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर अपने ऋण और प्रतिज्ञा को पूरा करके सदा परमेश्वर की आज्ञापालन करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(वैश्वानराय) सर्वनरहिताय जगदीश्वराय (प्रति) प्रत्यक्षम् (वेदयामि) विज्ञापयामि (यत्) (ऋणम्) (संगरः) प्रणयः (देवतासु) विदुषां विषये (सः) परमेश्वरः (एतान्) (पाशान्) बन्धान् (विचृतम्) अ० ६।११७।१। विचर्तितुं विश्लेषयितुम् (वेद) वेत्ति (सर्वान्) (अथ) अनन्तरम् (पक्वेन) पच पाके, व्यक्तीकारे च−क्त, तस्य वः। दृढस्वभावेन परमात्मना (सह) (संभवेम) संगच्छेमहि ॥

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    विषय

    ज्ञानरुचिता

    पदार्थ

    १. (वैश्वानराय) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु के चरणों में (प्रतिवेदयामि) = निवेदन करता हूँ कि (यदि ऋणम्) = यदि मैं अकर्मण्यतावश ऋण लेने के लिए बाधित होता हूँ तथा (देवतास संगर:) = देवताओं के विषय में प्रतिज्ञा ही करता हैं उनके प्रति कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं करता तो (स:) = वह वैश्वानर प्रभु ही (एतान् सर्वान् पाशान्) = लौकिक व वैदिक ऋणरूप इन सब पाशों को (विद्युतं वेद) = विश्लिष्ट करना जानते हैं-प्रभु ही मुझे इन पापों से मुक्त कर सकते हैं। २. प्रभुकृपा से (अथ)= -अब लौकिक व वैदिक ऋण से अनृण होकर हम (पक्वेन सह) = जीवन को परिपक्व करनेवाले ज्ञान के साथ संभवेम-सदा निवास करें। हम अपने को व्यर्थ की विषय-वासनाओं में व भोगविलास के जीवन में न डलकर ज्ञान की रुचिवाले बनें।

    भावार्थ

    प्रभु-चरणों में मनुष्य की प्रार्थना यही हो कि हम अपने को लौकिक व वैदिक कर्मों के बन्धन में न डाल बैठे। सदा ज्ञान की रुचिवाले होकर ऋणों को ठीक से चुकाते रहें।

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    भाषार्थ

    (यदि) यदि (देवतासु) देवताओं के नामों पर (ऋणम्) ऋण के उद्देश्य से (संगरः) प्रतिज्ञा मैंने की है तो उसे (वैश्वानराय) सब नर-नारियों का हित करने वाले परमेश्वर के लिये (प्रतिवेदयामि) मैं विज्ञापित देता हूं, (सः) वह वैश्वानर (एतान् सर्वान् पाशान्) इन सब पाशों को (विचृतम्) काटना (वेद) जानता है, (अथ) विज्ञापना के पश्चात् (पक्वेन) निजकर्मों के परिपक्व फल के (सह) साथ (संभवेम) हम संगत हों।

    टिप्पणी

    [वैश्वानर सब पाशों को काटना तो जानता है, परन्तु है वह न्यायकारी। कर्मों का फल वह न्यायपूर्वक देता है। जो हम ने देवताओं के नामों पर प्रतिज्ञाएं कीं, जिन्हें कि वैश्वानर को विज्ञापित कर दिया, वैश्वानर उन्हीं के आधार पर हमें कर्मफल देगा, अतः हमें निजार्जित कर्मफलों को पा कर संतुष्ट रहना चाहिये, यह अभिप्राय है।]

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    विषय

    ऋण और दोष का स्वीकार करना।

    भावार्थ

    मैं ऋणी या दोषी पुरुष (वैश्वानराय) समस्त पुरुषों के हितकारी, जज, मजिस्ट्रेट या धर्माध्यक्ष के समक्ष (यद् ऋणम्) जो मेरे ऊपर ऋण है उसको (प्रति-वेदयामि) स्पष्टरूप से स्वीकार करता हूं। और (देवतासु) देव, विद्वान् पंचों के बीच (यः संगरः) जो मेरी प्रतिज्ञा है उसको भी निवेदन करता हूं। (स) वह धर्माध्यक्ष ही (एतान् सर्वान् पाशान्) इन सब दण्डव्यवस्थाओं को (वि चृतम्) स्पष्टरूप से (वेद) जानता है (अथ) और हम सब प्रजागण (पक्वेन सह) परिपक्व, सुविचारित परिणाम के साथ (सं भवेम) सहमत हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अनृणकामः। कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Debt

    Meaning

    I confess to Vaishvanara, universal benefactor, what debts I owe, what promises I have to fulfil among the divinities. He knows how to snap these snares, so we must abide by that lord of determined certainty.

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    Translation

    I declare to the benefactor of all men the debt, which I have promised to repay to the enlightened ones. He knows how to unfasten all these noosess. Then may we be united with the ripened fruit of our actions.

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    Translation

    I confess before the All-controlling Divinity duties and vows which I have to perform and fulfill towards learned men. He knows how to tear as under these noose and so may we dwell in His ever-mature Communion.

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    Translation

    I will acknowledge unto God, the Leader of humanity, the debt I have incurred, and the promises made to the sages. He knows how to tear asunder all these nooses, so that we may dwell with Him, the resolute-minded.

    Footnote

    Nooses: The bonds of debt.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(वैश्वानराय) सर्वनरहिताय जगदीश्वराय (प्रति) प्रत्यक्षम् (वेदयामि) विज्ञापयामि (यत्) (ऋणम्) (संगरः) प्रणयः (देवतासु) विदुषां विषये (सः) परमेश्वरः (एतान्) (पाशान्) बन्धान् (विचृतम्) अ० ६।११७।१। विचर्तितुं विश्लेषयितुम् (वेद) वेत्ति (सर्वान्) (अथ) अनन्तरम् (पक्वेन) पच पाके, व्यक्तीकारे च−क्त, तस्य वः। दृढस्वभावेन परमात्मना (सह) (संभवेम) संगच्छेमहि ॥

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