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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 119/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कौशिक देवता - वैश्वानरोऽग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
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    वै॑श्वान॒रः प॑वि॒ता मा॑ पुनातु॒ यत्सं॑ग॒रम॑भि॒धावा॑म्या॒शाम्। अना॑जान॒न्मन॑सा॒ याच॑मानो॒ यत्तत्रैनो॒ अप॒ तत्सु॑वामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒र: । प॒वि॒ता । मा॒ । पु॒ना॒तु॒ । यत् । स॒म्ऽग॒रम् । अ॒भि॒ऽधावा॑मि । आ॒ऽशाम् । अना॑जानन् । मन॑सा । याच॑मान: । यत् । तत्र॑ । एन॑: । अप॑ । तत् । सु॒वा॒मि॒ ॥११९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरः पविता मा पुनातु यत्संगरमभिधावाम्याशाम्। अनाजानन्मनसा याचमानो यत्तत्रैनो अप तत्सुवामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानर: । पविता । मा । पुनातु । यत् । सम्ऽगरम् । अभिऽधावामि । आऽशाम् । अनाजानन् । मनसा । याचमान: । यत् । तत्र । एन: । अप । तत् । सुवामि ॥११९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 119; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वचन के प्रति पालन का उपदेश।

    पदार्थ

    (पविता) सब शुद्ध करनेवाला (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी (मा) मुझे (पुनातु) शुद्ध करे, (यत्) यदि (मनसा) मन से (अनाजानन्) अजान होकर (याचमानः) [अनुचित] माँगता हुआ मैं (संगरम्) अपनी प्रतिज्ञा और (आशाम्) उनकी आशा पर (अभिधावामि) पानी फेर दूँ। (तत्र) उस [कर्म] में (यत्) जो (एनः) पाप है, (तत्) उसको (अप सुवामि) मैं हटाऊँ ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य शुद्धस्वभाव परमात्मा के गुणों को विचारता हुआ अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करे, और प्रमाद करके दुष्ट कर्मों में न पड़े ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(वैश्वानरः) सर्वनरहितः (पविता) सर्वशोधयिता (मा) माम् (पुनातु) शोधयतु (यत्) यदि (संगरम्) स्वप्रतिज्ञाम् (अभिधावामि) धावु गतिशुद्ध्योः। अभिशोधयामि। अभिभवामि (आशाम्) तेषां लालसाम् (अनाजानन्) अज्ञानं कुर्वन् (मनसा) चेतसा (याचमानः) अनुचितं प्रार्थयमानः (यत्) (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (एनः) पापम् (तत्) (अप सुवामि) षू प्रेरणे। अपगमयामि ॥

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    विषय

    प्रभु-स्मरण व पाप-शोधन

    पदार्थ

    १. (पविता) = हमारे जीवनों को शुद्ध बनानेवाला (वैश्वानरः) = सबका हित करनेवाला प्रभु (मा पुनातु) = मुझे पवित्र जीवनवाला बनाए। (अनाजानन्) = हिताहित विभाग को न जानता हुआ अथवा कर्तव्याकर्तव्य को ठीक से न समझता हुआ (यत्)  = जो मैं (संगरम् अभिधावामि) = ऋणापकरण विषयक प्रतिज्ञा की ओर ही दौड़ता हूँ। 'उस दिन लौटा दूंगा', ऐसी प्रतिज्ञाएँ ही करता रहता हैं, लौटात नहीं। इसप्रकार (आशाम) = [धावामि] मैं उन उत्तमणों की आशा पर पानी फेर देता हूँ [धाव शुद्धौ], उनकी आशाओं का सफाया ही कर डालता हूँ। मैं (मनसा) = मन से (याचमान:) = ऐहिक सुखों की ही याचना करता रहता हूँ। ऐहिक सुखों में फंसने के कारण ही तो ऋणी बनता हूँ और ऋणशोधन में समर्थ नहीं होता। २.हे प्रभो! आपसे शक्ति पाकर (तत्र) = उस वैषयिक सुखासक्ति में और ऋण का आदान करने में (यत्) = जो (एन:) = पाप है (तत्) = उस पाप को (अपसुवामि) = मैं अपने से दूर प्रेरित करता हूँ। हे प्रभो! मेरे इस पापमय जीवन को आपको ही शुद्ध करना है।

    भावार्थ

    'ऋण न चुकाकर यूँ ही प्रतिज्ञा करते रहना, उत्तमर्ण की आशा पर पानी फेर देना, ऐहिक सुखों में फंसे रहना'-यह सब पाप का मार्ग है। प्रभु-प्रेरणा से मैं इस मार्ग में  न जाकर अपने जीवन को शुद्ध बनाऊँ।

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    भाषार्थ

    (पविता) पवित्र करने वाला (वैश्वानरः) सब नरनारियों का हित करने वाला परमेश्वर (मा) मुझे (पुनातु) पवित्र करे, (यत्) जो कि (संगरम्) ऋण वापिस कर देने की प्रतिज्ञा को, तथा (आशाम्) ऋणप्राप्त करने की आशा को (अभि) लक्ष्य करके (धावामि) दौड़धूप में करता हूँ। (मनसा) मन से (अनाजानन्) पूर्णतया न जानता हुआ भी [कि मैं को वापिस करूंगा या नहीं] जो मैं (याचमानः) ऋण याचना करता हूं (तत्र) उस सम्बन्ध में (यत्) जो (एनः) पाप है (तत्) उसे (अपसुवामि) मैं दूर प्रेरित करता हूं, हटाता हूं।

    टिप्पणी

    [अप सुवामि= अप + षू प्ररणे (तुदादिः)। "अनाजानन्" होते हुए भी, "वापिस कर दूंगा" यह प्रतिज्ञा करके ऋणग्रहण करना, ऋणदाता को धोखा देना है, यह पाप है। इसे भविष्य में न करने का संकल्प ऋण ग्रहीता करता है, और इस निमित्त वह "पुनातु मा" द्वारा "पविता" परमेश्वर से मानसिक पवित्रता की अभिलाषा करता है।]

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    विषय

    ऋण और दोष का स्वीकार करना।

    भावार्थ

    (पविता) सत्य और असत्य दोनों का विवेक करने वाला (वैश्वानरः) सर्वहितकारी धर्माध्यक्ष अपने सत्य विवेक से (मा) मुझे (पुनातु) पवित्र करे (यत्) जब कि मैं (संगरम्) किसी प्रतिज्ञा, (आशाम्) या किसी इच्छा को (अभि धावामि) करूं, अर्थात् असत्य प्रतिज्ञाओं या असत्य इच्छा के करते समय मुझे धर्माध्यक्ष का सदा भय रहे। (याचमानः) मांगता हुआ (अनाजानन्) बिना जाने अर्थात् अज्ञानमय, (मनसा) संकल्प विकल्प द्वारा (तत्र) उस मांगने के सम्बन्ध में (यत्) जो (एनः) पाप या अपराध कर बैठता हूं (तत्) मेरे उस अपराध को भी (अप सुवामि) धर्माध्यक्ष द्वारा दूर करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अनृणकामः। कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Debt

    Meaning

    May Vaishvanara, all impeller and sanctifier, purify me, so that whatever the hope I run after, whatever the promise I make, and whatever my prayer from the heart, though all without full understanding, I may remove whatever sinful there may be in that promise, hope and prayer.

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    Translation

    May the purifier benefactor of all men purify me. If I go against the promise and the expectation, without knowing the reality, begging with my mind for material gains; what sin is therein, that I dispel.

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    Translation

    May the Pure Divinity purify me if I unknowing in my heart begging, intend to break my promise and oppose the people. Whatever guilt is there in this act I remove from me.

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    Translation

    O God, the Benefactor of humanity, the Purifier purge me when I oppose their hope and break my promise. Unknowing in my heart, hankering after worldly pleasure, whatever guilt there is in that, I banish.

    Footnote

    Their hope: The hope of the creditors for payment.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(वैश्वानरः) सर्वनरहितः (पविता) सर्वशोधयिता (मा) माम् (पुनातु) शोधयतु (यत्) यदि (संगरम्) स्वप्रतिज्ञाम् (अभिधावामि) धावु गतिशुद्ध्योः। अभिशोधयामि। अभिभवामि (आशाम्) तेषां लालसाम् (अनाजानन्) अज्ञानं कुर्वन् (मनसा) चेतसा (याचमानः) अनुचितं प्रार्थयमानः (यत्) (तत्र) तस्मिन् कर्मणि (एनः) पापम् (तत्) (अप सुवामि) षू प्रेरणे। अपगमयामि ॥

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