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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 130/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त
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    उन्मा॑दयत मरुत॒ उद॑न्तरिक्ष मादय। अग्न॒ उन्मा॑दया॒ त्वम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । मा॒द॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । उत् । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ । मा॒द॒य॒ । अग्ने॑ । उत् । मा॒द॒य॒ । त्वम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उन्मादयत मरुत उदन्तरिक्ष मादय। अग्न उन्मादया त्वमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । मादयत । मरुत: । उत् । अन्तरिक्ष । मादय । अग्ने । उत् । मादय । त्वम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    विषय

    स्मरण सामर्थ्य बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मरुतः) हे वायुगणो ! (उत्) उत्तम प्रकार से (मादयत) प्रसन्न करो, (अन्तरिक्ष) हे मध्यलोक ! (उत्) अच्छे प्रकार (मादय) हर्षित कर। (अग्ने) हे अग्नि ! (त्वम्) तू (उत्) उत्तम रीति से (मादय) आनन्दित कर, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम्) मुझको (अनु) व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्नपूर्वक प्राण अपान गति, जाठर अग्नि और बाहिर-भीतर स्थान को ठीक-ठीक रख कर स्वस्थ रहकर अपनी स्मृति बढ़ाते रहें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(उत्) उत्तमतया (मादयत) हर्षयत (मरुतः) हे मरुद्गणाः। प्राणापानाः (उत्) (अन्तरिक्ष) मध्यलोक (मादय) आनन्दय (अग्ने) जाठराग्ने। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    काम का उन्माद

    पदार्थ

    १. हे (मरुत:) = वसन्तऋतु की सुन्दर वायुओ! आप इस 'काम' को (उन्मादयत) = उन्मत्त कर दो। हे (अन्तरिक्ष) = सम्पूर्ण वातावरण! (उत् मादय) = तू भी इस काम को उन्मत्त कर दे। हे (अग्ने) = शरीरस्थ अग्नितत्व [Excitement] (त्वम् उन्मादय) = तू भी इस काम को उन्मत्त कर, (असौ माम् अनुशोचतु) = वह मेरा शोक करे। २. वसन्त की वायुएँ, अन्तरिक्ष का सौन्दर्य व उत्तेजना उत्पन्न करनेवाला अग्नितत्व मुझे कामातुर न बनाकर 'काम' को ही उन्मत्त बनानेवाले हों और इसप्रकार यह काम मेरे हदय में स्थान न पाकर, वह मेरा शोक करता रहे।

    भावार्थ

    कामवासना की उत्पत्ति के लिए कारणभूत वस्तुएँ काम को ही उन्मत्त करें, न कि मुझे। मेरे लिए तो यह काम विलाप ही करता रहे 'कि मेरा निवास-स्थान छिन गया।

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    भाषार्थ

    (मरुतः) हे मानसून वायुओं ! (उन्मादयत) उन्मत्त करो [स्मर के उद्रेक द्वारा] (अन्तरिक्ष) हे मेघाच्छन्न अन्तरिक्ष (उन्मादय) तू भी उसे उन्मत्त करदे। (अग्ने) हे मेघ में चमकने वाली वैद्युताग्नि ! (त्वम्) तू भी (उन्मादय) पति को उन्मत्त कर, ताकि (असौ) वह पति (माम्) मेरा (अनु) अनुस्मरण करके (शोचतु) शोकाग्रस्त हो जाय।

    टिप्पणी

    [कविसम्प्रदायानुसार वर्षा ऋतु स्मरोद्दीपिका है। अतः विरहिता पत्नी मरुतः को सम्बोधित करती है, पति के वापिस लौट आने के लिए। मरुतः (अथर्व० ४।२७।४, ५)।]

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    विषय

    स्त्री पुरुषों का परस्पर प्रेम और स्मरण।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो ! उस प्रेमी व्यक्ति अर्थात् पति या पत्नी को मेरे प्रेमाभिलाष में (उन्मादयत) प्रसन्न रखो, वह मेरे सिवाय किसी और की याद न रक्खे, मेरी स्मृति में ही मस्त रहे। हे (अन्तरिक्ष) अन्तर्यामी आत्मन् ! तू ही उस प्रेमपात्र को (उन्मादय) प्रेम में प्रसन्न रख। हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम् उन्मादय) प्रेम में उसे प्रसन्न रख जिससे (असौ माम् अनुशोचतु) वह मेरे प्रेम वियोग की चिन्ता में रहे और मुझे स्मरण करे।

    टिप्पणी

    वेद में पति-पत्नी को चिरस्थायी प्रेम में निरत रख कर एक दूसरे की अभिलाषा करने का उपदेश किया है, न कि विषय लोलुपता में अन्धे होकर दीवाना होने को कहा है। वह स्थायी प्रेम, परस्परानुचिन्तन और परस्पर प्रेम में रहना भी (रथजित्, राथजितेयी) काम वेगों को रोकने वाले जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों में ही सम्भव है। इसके अतिरिक्त अध्यात्मपक्ष में, रथजित् = आत्मसाधक जितेन्द्रिय योगी, और “राथजितेयी” अप्सराएँ = उनकी ध्यानवृत्तियां हैं। वे अपने प्रियतम उपास्यदेव को स्मरण करते हैं और उसी को अपने प्रेम और लगन के लिये द्रवित करना चाहते हैं उसी का स्मरण करते हैं, उसी के ध्यान में दीवाने हो जाते हैं। जैसे कबीर ने लिखा है- " “प्रीत लगी तुम नाम की पल बिसरै नाहीं। नजर करो अब मिहर की मोंहि मिलो गोसाईं॥ विरह सतावै मोंहि को जिव तड़पै मेरा। तुम देखन की चाव है प्रभु मिलो सवेरा॥ नैना तरसे दरस को पल पलक न लागे। दर्द बंद दीदार का निसिवासर जागे॥ जो अबके प्रीतम मिलें करू निमिष न न्यारा। अब कबीर गुरु पांइयाँ मिला प्राण पियारा॥ [कबीर शब्दावली भा० २, श० ६ ]॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। २, ३ अनुष्टुभौ। १ विराट् पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Love and Memory

    Meaning

    O Maruts, cosmic winds and vibrant sages, arouse the divine memory in me. O skies, arouse the divine ecstasies in me. O Agni, leading light of Divinity, enlightened teacher of Vedic knowledge, awake the love and joy of learning in me and arouse the cosmic frequency in my mind. And may that divine mind, thus, enlighten and sanctify me. (Refer also to Yajurveda 34, 1 - 6 )

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    Translation

    O cloud-bearing winds, make him crazy; make him crazy. O midspace, O fire divine, may you make him crazy. Let him wail for me.

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    Translation

    Let the winds blowing in all the directions madden either of wife and husband, let the firmament madden her or him, let the bodily electricity madden either, so that he or she remember either of two.

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    Translation

    O learned persons give me pleasure. O soul give me happiness. O God give me joy. May this power of recollection ever remain fresh and pure in me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(उत्) उत्तमतया (मादयत) हर्षयत (मरुतः) हे मरुद्गणाः। प्राणापानाः (उत्) (अन्तरिक्ष) मध्यलोक (मादय) आनन्दय (अग्ने) जाठराग्ने। अन्यद् गतम् ॥

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