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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 131/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त
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    नि शी॑र्ष॒तो नि प॑त्त॒त आ॒ध्यो॒ नि ति॑रामि ते। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ‍नि । शी॒र्ष॒त: । नि ।प॒त्त॒त: । आ॒ऽध्य᳡: । नि । ति॒रा॒मि॒। ते॒ । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ‍नि । शीर्षत: । नि ।पत्तत: । आऽध्य: । नि । तिरामि। ते । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 131; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परस्पर पालन का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (शीर्षतः) अपने मस्तक [सामर्थ्य] से (नि) निश्चय करके, (पत्ततः) अपने पद [के सामर्थ्य] से (नि) नियम करके (आध्यः) यथावत् ध्यान धर्मों को (नि) लगातार (तिरामि) मैं पार करूँ। (देवाः) हे विद्वानों ! (स्मरम्) स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ से स्मरण शक्ति बढ़ाकर सुखी होवे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(नि) निश्चयेन (शीर्षतः) शिरःसामर्थ्यात् (नि) नियमेन (पत्ततः) एकस्तकारश्छान्दसः। पत्तः। पादसामर्थ्यात् (आध्यः) आध्यायते आधीः। ध्यायतेः क्विप् सम्प्रसारणं च। वा० पा० ३।२।१७८। आङ्+ध्यै चिन्तायाम्−क्विप्, शसि रूपम्। सम्यग्ध्यानधर्मान् (नि) निरन्तरम् (तिरामि) मुदादित्वादिकारः। पारं गमयामि। समापयामि। अन्यत् पूर्ववत्−सू० १३० म० १ ॥

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    विषय

    सिर से पैर तक कामजनित पीड़ा

    पदार्थ

    १. काम से पीड़ित मनुष्य सिर से पैर तक एक विचित्र-सी व्यथा को अनुभव करता है। वह व्यथा ही यहाँ 'आधि' शब्द से कही गई है। 'काम' के विनाश के लिए कटिबद्ध व्यक्ति 'काम' को ही सम्बोधित करके कहता है कि हे काम!( नि शीर्षतः नि पत्तत:) = सिर से लेकर पाँव तक (ते आध्यः) = तेरे कारण उत्पन्न इन मानस पीड़ाओं को (नितिरामि) = विनष्ट [destroy] व पराभूत करता हूँ। २. हे (देवा:) = देवो! (स्मरं प्रहिणुत) = इस काम को मुझसे दूर भेजो, (असौ माम् अनुशोचतु) = यह काम मेरा शोक करे। मैं 'काम' के कारण शोकातुर न होऊँ। काम ही निर्वासित होकर, स्थान छिन जाने से मेरा शोक करे कि 'किस प्रकार उसके हृदय में रहता था और अब निकाल दिया गया हूँ। ३. हे (अनुमते) = शास्त्रानुकूल कार्यों को करने की बुद्ध! तू (इदम् अनुमन्यस्व) = इस 'काम-निर्वासन'- रूप मेरी अभिलाषा को अनुज्ञात कर। हे (आकूते) = दृढ़ संकल्प! तेरे लिए (इदं नमः सम्) [प्रापयामि] = इस नमस्कार व आदरभाव को प्राप्त कराता हैं। तू भी इस कामनिर्वासन का अनुज्ञान कर-मुझे कामनिर्वासन के योग्य बना।

    भावार्थ

    हम कामवासना को दूर करके कामजनित पीड़ाओं को विनष्ट करें। इस कार्य में शास्त्रानुकूल कार्य करने की बुद्धि तथा दृढ़ संकल्प हमारे सहायक हों। 'देव भी इस 'काम' को हमसे दूर भेजें'-इसका भाव यह है कि हम सूर्य-चन्द्र, वायु आदि देवों के सम्पर्क में जितना अधिक अपने जीवन को बिताएँगे, अर्थात् जीवन जितना स्वाभाविक होगा, उतना ही हम वासना को जीत पाएँगे। कृत्रिम, विलासमय जीवन वासना को जाग्रत् करने में सहायक होता है।

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    भाषार्थ

    (शीर्षतः) हे पति ! मेरे सिर में (आध्यः) चिन्ताओं को (नि तिरामि) मैं पत्नी नितरां प्राप्त कराती हूं, (पत्ततः) पैरों में अर्थात् शरीर के अधोभाग में (नि) नितरां चिन्ताएं प्राप्त कराती हूं। (देवाः शोचतु) अर्थ पूर्ववत्, सूक्त (१३०)

    टिप्पणी

    [शीर्षतः पततः= सार्वविभक्तिकः तसिः, सप्तम्यर्थे। पत्नी निज चिरन्तन विरह द्वारा पति के अङ्गों में चिन्ताएं प्राप्त कराती है, और देवों से स्मरोद्दीपन की याचना द्वारा स्मरोद्रेक कर पति को वापिस आ जाने में बाधित करती है। तिरामि= "तिरः मत इति प्राप्तस्य" (निरुक्त ३।४।२०)। पत्ततः= एकः "तः" छान्दसः, "पत्तः" इति स्यात्।]

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    विषय

    प्रेमियों का परस्पर स्मरण और चिन्तन।

    भावार्थ

    मैं तेरा प्रेमी व्यक्ति अर्थात् पति या पत्नी (नि शीर्षतः) शिर से लेकर (नि पत्ततः) पैरों तक (ते) तेरे शरीर में (आध्यः) प्रेम से उत्पन्न होनेवाली मानसी व्यथाओं के (नि तिमि) उत्पन्न करने का कारण बनूं। हे (देवाः प्रहिणुत स्मरम् माम् अनुशोचतु) पुरुषो ! प्रियतम दूरस्थ व्यक्ति में प्रेमपूर्वक स्मरण करने के भाव को जागृत करो, जिससे वह मुझे स्मरण करके मेरे लिये वियोग दुःख अनुभव करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Love and Memory

    Meaning

    O Smara, divine love and cosmic memory, with the very basis of my foundations upto the highest intelligence, I explore and float over thoughts and reflections of divine love and memory. O divinities of nature and sages of humanity, pray invoke and arouse this knowledge and love and may that divine mind enlighten and sanctify me.

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    Subject

    Smara : Passion and Love

    Translation

    Out of your head, out of your feet, I draw away your pangs of love. O bounties of Nature, send forth passionate Love. May that man burn with desire for me.

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    Translation

    I husband or wife spread into you from head to foot all the troubles consequent to the pangs of longing love. Let the physical forces operating in the body and in the world increase the sense of longing love so that either of us, the wife and husband remember me, the either.

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    Translation

    O man with the force of my brain and the strength of my feet, I verily remove thy mental anguish. O learned persons, fully develop this power of recollection. May this memory ever remain fresh and pure in me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(नि) निश्चयेन (शीर्षतः) शिरःसामर्थ्यात् (नि) नियमेन (पत्ततः) एकस्तकारश्छान्दसः। पत्तः। पादसामर्थ्यात् (आध्यः) आध्यायते आधीः। ध्यायतेः क्विप् सम्प्रसारणं च। वा० पा० ३।२।१७८। आङ्+ध्यै चिन्तायाम्−क्विप्, शसि रूपम्। सम्यग्ध्यानधर्मान् (नि) निरन्तरम् (तिरामि) मुदादित्वादिकारः। पारं गमयामि। समापयामि। अन्यत् पूर्ववत्−सू० १३० म० १ ॥

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