अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 132/ मन्त्र 5
यं मि॒त्रावरु॑णौ स्म॒रमसि॑ञ्चताम॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । मि॒त्रावरु॑णौ । स्म॒रम् । असि॑ञ्चताम् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यं मित्रावरुणौ स्मरमसिञ्चतामप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । मित्रावरुणौ । स्मरम् । असिञ्चताम् । अप्ऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपामि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(मित्रावरुणौ) प्राण और अपान वायु ने (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के बीच (आध्या सह) ध्यान शक्ति के साथ (शोशुचानम्) अत्यन्त प्रकाशमान (यम् स्मरम्) जिस स्मरण सामर्थ्य को (असिञ्चताम्) सींचा है, (तम्) उस [स्मरण सामर्थ्य] को (ते) तेरे लिये (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के (धर्मणा) धर्म अर्थात् धारण सामर्थ्य से (तपामि) ऐश्वर्ययुक्त करता हूँ ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य प्राण और अपान के समान संसार में परस्पर उपकारी होकर ऐश्वर्य बढ़ावें ॥५॥
टिप्पणी
५−(मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। प्राणापानौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
देवा, विश्वेदेवाः, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी, मित्रावरुणौ
पदार्थ
१. (यं स्मरम) = जिस काम को (देवा:) = वासनाओं को जीतने की कामनावाले ज्ञानी लोग (असिञ्चन्) = अपने हृदय में सिक्त करते हैं, (ते) = तेरे लिए भी (तम्) = उस काम को वरुणस्य (धर्मणा) = पापों से निवृत्त करनेवाले प्रभु के धारण के द्वारा (तपामि) = उज्ज्वल बनाता हूँ। सामान्यत: 'काम' वासना का रूप ले-लेता है और यह वासनात्मक काम (आध्या सह) = [कामो गन्धर्वः, तस्याधयोऽप्सरस:-तै० ३.४.७.३] मानस पीड़ारूप अपनी पत्नी के साथ (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं में (शोशचानम्) = अतिशयेन विरहाग्नि से गात्रों को सन्तप्त करनेवाला होता है। यही काम वरुण के धारण से-प्रभु-स्मरण से पवित्र व उज्ज्वल होकर सन्तान को जन्म देनेवाला होता है। [धर्माविरुद्धा कामोऽस्मि भूतेषु भरतर्षभ, प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः]। देवलोग इसी काम को अपने हृदय में सिक्त करते हैं। २. इसीप्रकार (यं स्मरम्) = जिस काम को (विश्वेदेवाः) = देववृत्ति के सब पुरुष अपने में (असिञ्चत्) = सिक्त करते हैं, (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राणी) = इन्द्रपत्नी जितेन्द्रिय पुरुष की आत्मशक्ति (असञ्चत्) = अपने में सिक्त करती हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (इन्द्राग्नी) = शत्रुविद्रावक व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं और (यं स्मरम्) = जिस काम को (मित्रावरुणौ) = प्राण-अपान की साधना करनेवाले पुरुष (असिञ्चताम्) = अपने में सिक्त करते हैं, तेरे लिए भी उस काम को प्रभु-स्मरण द्वारा उज्ज्वल बनाता है।
भावार्थ
सामान्य: 'काम' वासना का रूप धारण करके मानस पीड़ा से मनुष्य को विरहाग्नि में सन्तप्त करनेवाला बनता है, परन्तु यदि हम 'देव, विश्वेदेवा, इन्द्राणी, इन्द्राग्नी व मित्रावरुणौ' के समान काम को अपने हृदयों में सिक्त करेंगे तो यह काम प्रभु-स्मरण के द्वारा पवित्र बना रहेगा और सन्तति को जन्म देनेवाला होगा। कामवासना को जीतने का उपाय यही है कि हम ज्ञानी बनें [देवाः], देववृत्ति के बनने का यत्न करें [विश्वेदेवाः], आत्मिक शक्ति का वर्धन करें [इन्द्राणी], जितेन्द्रिय व आगे बढ़ने की वृत्तिवाले हों [इन्द्राग्नी] और प्राणायाम द्वारा प्राणापान की साधना करें [मित्रावरुणी]।
विशेष
'काम'-बासना को जीतनेवाला यह व्यक्ति सब अविद्याओं व पापों का विध्वंस करनेवाला 'अग-स्त्य' बनता है। यह पाप को पराजित करने के लिए ही मेखला धारण करता है-कटिबद्ध होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(मित्रावरुणा) प्राण और अपान। शेष पूर्ववत् मन्त्र (१)।
टिप्पणी
[प्राण है बाहर की वायु का नासिक द्वारा फेफड़ों और शरीर में प्रवेश तथा अपान है शरीर से उसका अपगत होना। अपान द्वारा शरीर के मल के निकल जाने से शरीर की शुद्धि होती रहती है। इस दृष्टि से गुदा द्वारा वायु भी अपगत हुई पेट को शुद्ध करती है। अतः इस वायु को भी अपन कहते हैं। प्राण और अपान की सत्ता में शरीर में स्मर की सत्ता होती है। प्राण अपान सर्व प्राणियों में विद्यमान रहते हैं, अतः स्मर की सत्ता भी सर्वप्राणिसमान है।] विशेष सूक्त १३० १३१, १३२ में किसी ऐतिहासिक वृत्त का कथन नहीं। पति-पत्नी के परस्पर मनोमालिन्य में गृहजीवन में जो स्थिति प्रायः उपस्थित हो जाती है, उसी का कथन इन सूक्तों में हुआ है।]
विषय
प्रेम के दृढ़ करने का उपदेश।
भावार्थ
(यं मित्रावरुणौ आध्या शोशुचानम्) मानसी पीड़ा के साथ उत्पन्न होने वाली जिस पारस्परिक अभिलाषा को (मित्रावरुणौ) मित्र-प्राण और वरुण = अपान दोनों एक होकर (अप्सु अन्तः असिञ्चताम्) प्रजाओं के हृदय में सींचते हैं (तम्) उसी परस्पर प्रेम को (वरुणस्य धर्मणा) राजा या प्रभु की व्यवस्था से भी (तं तपामि) तुझमें मैं परिपक्व करता हूँ।
टिप्पणी
इस सूक्त में वेद ने विवाह बन्धन को और परस्पर के प्रेमाभिलाष को दृढ़ करने के ६ उपाय दर्शाये हैं। (१) विद्वानों का उपदेश, (२) सब इष्ट सम्बन्धियों की प्रेरणा, (३) ईश्वरीय शक्ति (४) ईश्वर और आचार्य के समक्ष वार्त्तालाप और उनकी अनुमति, (५) प्राण और अपान शक्ति का एक होना, (६) सबके साथ साथ राजनियम की सद् व्यवस्था।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। १ त्रिपदानुष्टुप्। ३ भुरिग्। २, ४, ५ त्रिपदा महा बृहत्यः। १, ४ विराजौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Love and Memory
Meaning
That smara, universal love and cosmic memory of life’s nature and potential, enlightening, purifying and elevating, which Mitra and Varuna, divine love and judgement, sun and moon, air and ocean, and the nation’s sense of love and pride, on the one hand, and the sense of judgement and reality, on the other, poured into the mind and action of the people with self- confidence and objectivity, that same love and judgement, and confidence and caution. I develop and refine with the discipline and Dharma of Varuna, the nation’s law and constitution without forsaking the vision and faith in Divinity.
Translation
The passionate love, which the Lord friendly and venerable, has poured into waters (i.e., semen), burrning fiercely and accompanied by pains of longing - that I heat up for yor, according to the law of the venerable Lord (Law-maker).
Translation
O Wife or husband! I, the either of married dual heat up with the restrain of Varuna the Ail-protecting Divinity your that philter which is burning and yearning and is poured down into the waters or the worldly subjects with its consequent troubles by the day and night.
Translation
I develop in thee through God's law, the brilliant power of recollection, which Prana and Apana have developed in the people through concentration.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(मित्रावरुणौ) अ० १।२०।२। प्राणापानौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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