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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 134 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 134/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुक्र देवता - वज्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    यो जि॒नाति॒ तमन्वि॑च्छ॒ यो जि॒नाति॒ तमिज्ज॑हि। जि॑न॒तो व॑ज्र॒ त्वं सी॒मन्त॑म॒न्वञ्च॒मनु॑ पातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । जि॒नाति॑ । तम् । अनु॑ । इ॒च्छ॒ । य: । जि॒नाति॑ । तम् । इत् । ज॒हि॒ । जि॒न॒त: । व॒ज्र॒ । त्वम् । सी॒मन्त॑म् । अ॒न्वञ्च॑म् । अनु॑ । पा॒त॒य॒ ॥१३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो जिनाति तमन्विच्छ यो जिनाति तमिज्जहि। जिनतो वज्र त्वं सीमन्तमन्वञ्चमनु पातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । जिनाति । तम् । अनु । इच्छ । य: । जिनाति । तम् । इत् । जहि । जिनत: । वज्र । त्वम् । सीमन्तम् । अन्वञ्चम् । अनु । पातय ॥१३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 134; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के शासन का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो पुरुष (जिनाति) अत्याचार करे, (तम्) उसको (अनु इच्छ) ढूँढ ले, (यः) जो (जिनाति) उपद्रव करे (तम् इत्) उसी को (जहि) मार डाल, (वज्र) हे वज्रधारी (त्वम्) तू (जिनतः) अत्याचारी के (सीमन्तम्) मस्तक को (अन्वञ्चम्) लगातार (अनुपातय) गिराये जा ॥३॥

    भावार्थ

    राजा नीतिपूर्वक दुराचारियों को सदा दण्ड देवे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यः) दुराचारी (जिनाति) ज्या वयोहानौ। ग्रहिज्या०। पा० ६।१।१६। इति संप्रसारणम्। हानिं करोति (तम्) (अन्विच्छ) अन्वेषणेन प्राप्नुहि (इत्) एव (जहि) मारय (जिनतः) हानिं कुर्वतः पुरुषस्य (वज्र) अर्शआद्यच्। वज्रधारिन्, (सीमन्तः) शरीरस्य सीम्नोऽन्तः। शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। शिरः (अन्वञ्चम्) अनु+अञ्चु गतौ−क्विन्। अनु पश्चात् अनुक्रमेण प्राप्तम् (अनु) पश्चात् (पातय) अधो गमय ॥

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    विषय

    राष्ट्र की हानि करनेवाले का विनाश

    पदार्थ

    १. (य:) = जो शत्रु (जिनाति) = हानि पहुँचाता है, हे वज्र ! (तम् अनु इच्छ) = तू उसका लक्ष्य करके उसे ढूढ-उसपर प्रहार करने की इच्छा कर । (यः जिनाति) = जो हानि करता है (तम् इत जहि) = तु उसे ही नष्ट कर । २. हे (वज्र) = दुष्टों के दण्ड के साधनभूत आयुध । (त्वम्) = तु (जिनत:) = इस हानि जयवर करनेवाले के (सीमन्तम्) = [सीम्नोरन्तः] सिर के मध्यदेश को (अन्वञ्चम् अनुपातय) = अनुक्रम से विदीर्ण कर डाल।

    भावार्थ

    राष्ट्र की हानि करनेवाले का वज्र के द्वारा विनाश किया जाए।

     

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    भाषार्थ

    (यः) जो (जिनाति) हमारी वयोहानि करता है (तम्) उसे (अन्विच्छ) तू ढूंढ, (यः) जो (जिनाति) हमारी वयोहानि करता है (तम्) उसको (इते) ही या अवश्य (जहि) मार। (वज्र) हे वज्रधारी ! (त्वम्) तू (जिनतः) वयोहानि करने वाले के (सीमन्तम्) सिर के मध्यदेश को (अन्वञ्चम्) नीचे की ओर झुका कर (अनु पातय) तदनुसार गिरा दे।

    टिप्पणी

    [सीमन्तम् = सीम्नः अन्तः तम्, शिरसो मध्यदेशम् (सायण)।]

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    विषय

    वज्र द्वारा शत्रु का नाश।

    भावार्थ

    (उत्तरेभ्यः) उत्कृष्ट मनुष्यों से (अधरः अधरः) नीचे ही नीचे रह कर (पृथिव्या गूढः) पृथिवी में या भूगर्भ में छुप कर रहने वाला शत्रु (मा उत्सृपत्) कभी ऊपर न आवे। बल्कि (वज्रेण अवहतः) वज्र से ताड़ित होकर (शयाम्) सदा के लिये लेट जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता वज्रो देवता। १ परानुष्टुप त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिपदा गायत्री। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Enemies

    Meaning

    O thunderbolt of law and punishment, seek out whoever oppresses, catch hold of whoever oppresses and tyrannizes and throw him off. O wielder of power and force of thunderous law, push down the head of the violent, oppressor and the terrorist. Let him never raise his head.

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    Translation

    May you seek him out who causes harm. May you strike him dead who causes harm. Whoever cause harm. O thunder-bolt,may you make his head to fall down straight away.

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    Translation

    Let this bolt seek out the man who oppresses the people, let it strike dead the man who coerce the people, let this bolt completely strike down the head of the oppressor.

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    Translation

    Seek out the fierce oppressor, yea, strike only the oppressor dead. Down on the fierce oppressor's head strike at full length, O ruler.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यः) दुराचारी (जिनाति) ज्या वयोहानौ। ग्रहिज्या०। पा० ६।१।१६। इति संप्रसारणम्। हानिं करोति (तम्) (अन्विच्छ) अन्वेषणेन प्राप्नुहि (इत्) एव (जहि) मारय (जिनतः) हानिं कुर्वतः पुरुषस्य (वज्र) अर्शआद्यच्। वज्रधारिन्, (सीमन्तः) शरीरस्य सीम्नोऽन्तः। शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। शिरः (अन्वञ्चम्) अनु+अञ्चु गतौ−क्विन्। अनु पश्चात् अनुक्रमेण प्राप्तम् (अनु) पश्चात् (पातय) अधो गमय ॥

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