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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शन्ताति देवता - सविता छन्दः - गायत्री सूक्तम् - पावमान सूक्त
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    उ॒भाभ्यां॑ देव सवितः प॒वित्रे॑ण स॒वेन॑ च। अ॒स्मान्पु॑नीहि॒ चक्ष॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भाभ्या॑म् । दे॒व॒ । स॒वि॒त॒: । प॒वित्रे॑ण । स॒वेन॑ । च॒ । अ॒स्मान् । पु॒नी॒हि॒ । चक्ष॑से ॥१९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभाभ्यां देव सवितः पवित्रेण सवेन च। अस्मान्पुनीहि चक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभाभ्याम् । देव । सवित: । पवित्रेण । सवेन । च । अस्मान् । पुनीहि । चक्षसे ॥१९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पवित्र आचरण के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (देव) हे दानशील (सवितः) सत्य कर्मों में प्रेरक जगदीश्वर ! (उभाभ्याम्) दोनों अर्थात् (पवित्रेण) शुद्ध आचरण से (च) और (सवेन) ऐश्वर्य से (अस्मान्) हमें (चक्षसे) देखने के लिये (पुनीहि) पवित्र कर ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर शुद्ध आचरण से ऐश्वर्य बढ़ा कर संसार के पदार्थों को विज्ञानपूर्वक साक्षात् करे ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−९।६७।२५। और यजु० १९।४३ ॥

    टिप्पणी

    ३−(उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (देव) हे दातः (सवितः) सत्यकर्मसु प्रेरकेश्वर (पवित्रेण) शुद्धाचरणेन (सवनेन) ऐश्वर्येण (च) (अस्मान्) धार्मिकान् (पुनीहि) शोधय (चक्षसे) अ० १।५।१। दर्शनाय ॥

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    विषय

    पवित्रेण सवेन च

    पदार्थ

    १. हे (सवितः देव) = सबके प्रेरक, दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (अस्मान्) = हमें (पवित्रेण) = ज्ञान के द्वारा [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते] (च) = और (सवेन) = यज्ञ के द्वारा (पुनीहि) = पवित्र कीजिए। ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों की पवित्रता का सम्पादन करता है तो यज्ञ कर्मेन्द्रियों को पवित्र रखता है। २. (उभाभ्याम्) = आप इन दोनों से ही हमें पवित्र कीजिए, जिससे (चक्षसे) = हम आपको देखने के लिए हों। अपवित्रता का आवरण प्रभु-दर्शन में प्रतिबन्धक है। मल का आवरण हटते ही हृदय में प्रभु का दर्शन होता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमें ज्ञानों व कर्मों द्वारा पवित्र करें, जिससे हम उसका दर्शन कर सकें।

    विशेष

    जीवन को पवित्र बनानेवाला प्रभु हमें ज्ञान व कों द्वारा पवित्र करता है। पवित्रता हमें प्रभु-दर्शन का पात्र बनाती है। अपने को ज्ञानाग्नि में परिपक्व करनेवाला यह 'भगु+अङ्गिराः' सदा गतिशील होता है। यही अलगे सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (सवितः) हे प्रेरक ! (देव) हे देव ! (पवित्रेण) पवित्र वेदज्ञान द्वारा (च) और (सवेन) आप परमेश्वर की प्रेरणा द्वारा, (उभाभ्याम्) इन दोनों द्वारा, (अस्मान्) हमें (पुनीहि) पवित्र कर, (चक्षसे) ताकि हम तेरा दर्शन कर सकें।

    टिप्पणी

    [वेदों के स्वाध्याय द्वारा निज जोवन को पवित्र कर, तथा परमेश्वर की प्रेरणा को प्राप्त कर, उपासक परमेश्वर का दर्शन कर लेता है]

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    विषय

    पवित्र होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (सवितः देव) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक परमेश्वर देव ! (पवित्रेण) अपने पवित्र करनेहारे ज्ञान और (सवेन च) कर्म (उभाभ्यां) दोनों से (चक्षसे) अपने साक्षात् दर्शन के लिये (अस्मान्) हमें (पुनीहि) पवित्र कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शन्तातर्ऋषिः। नाना देवता, उत चन्द्रमा देवता। १, २ गायत्र्यौ, ३ अनुष्टुप् । तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purification of the Soul

    Meaning

    O divine Savita, lord of life and light, pray purify us all with both purity at heart within and creative yajnic action in the open world for the sake of a vision of divinity.

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    Translation

    O impeller Lord, with both the cleansing and straining, may you purify us, so that we may see.

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    Translation

    O All-creating and Almighty Divinity! purify me by both of these—the pure knowledge and pure act. O Lord! purify us to see and realize Thee.

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    Translation

    O God, the Creator, through both of Thy knowledge and goading purify us that we may visualize Thee.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (देव) हे दातः (सवितः) सत्यकर्मसु प्रेरकेश्वर (पवित्रेण) शुद्धाचरणेन (सवनेन) ऐश्वर्येण (च) (अस्मान्) धार्मिकान् (पुनीहि) शोधय (चक्षसे) अ० १।५।१। दर्शनाय ॥

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