अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
परि॑ णो वृङ्ग्धि शपथ ह्र॒दम॒ग्निरि॑वा॒ दह॑न्। श॒प्तार॒मत्र॑ नो जहि दि॒वो वृ॒क्षमि॑वा॒शनिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । न॒: । वृ॒ङ्ग्धि॒ । श॒प॒थ॒ । ह्रदम् । अग्नि:ऽइ॑व । दह॑न् । श॒प्तार॑म् । अत्र॑ । न॒: । ज॒हि॒ । दि॒व: । वृ॒क्षम्ऽइ॑व । अ॒शनि॑: ॥३७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णो वृङ्ग्धि शपथ ह्रदमग्निरिवा दहन्। शप्तारमत्र नो जहि दिवो वृक्षमिवाशनिः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । न: । वृङ्ग्धि । शपथ । ह्रदम् । अग्नि:ऽइव । दहन् । शप्तारम् । अत्र । न: । जहि । दिव: । वृक्षम्ऽइव । अशनि: ॥३७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कुवचन के त्याग का उपदेश।
पदार्थ
(शपथ) हे शान्तिमार्ग दिखानेवाले राजन् ! (न) हमें (परि वृङ्धि) छोड़ दे (इव) जैसे (दहन्) जलता हुआ (अग्निः) अग्नि (ह्रदम्) अथाह झील को [छोड़ जाता है]। (अत्र) यहाँ पर (नः) हमारे (शप्तारम्) कोसनेवाले को (जहि) नाश करदे, (इव) जैसे (दिव) आकाश से (अशनिः) बिजुली (वृक्षम्) स्वीकरणीय वृक्ष को ॥२॥
भावार्थ
राजा दुष्टों के कलङ्क लगाने से धर्म्मात्माओं की रक्षा करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(परि) सर्वतः (नः) अस्मान् (वृङ्धि) अ० १।२५।१। वर्जय (शपथ) म० १। हे शान्तिपथदर्शक (ह्रदम्) ह्राद स्वने−अच्। अगाधजलाशयम् (अग्निः) पावकः (इव) यथा (दहन्) भस्मीकुर्वन् (शप्तारम्) कुभाषिणम् (अत्र) अस्मिन् राज्ये (नः) अस्माकम् (जहि) नाशय, (दिवः) आकाशात् (वृक्षम्) स्वीकरणीयं द्रुमम् (इव) यथा (अशनिः) विद्युत् ॥
विषय
शाप से उत्तेजित न होना
पदार्थ
१. हे (शपथ) = आक्रोश ! तू (न:) = हमें इसप्रकार (परिवृग्धि) = छोड़ दे, (इव) = जैसेकि (आदहन्) = समन्तात् जलाने की क्रिया करता हुआ (अग्नि:) = अग्नि (ह्रदम्) = जलपूर्ण तालाब को छोड़ देता है। हम भी शापरूप अग्नि के लिए शान्तिजल से पूर्ण हद के समान हों। दूसरों के शब्दों से उत्तेजित न हो उठे। २. हे शाप! तू (नः शप्तारम्) = हमें शाप देनेवाले को ही (अत्र) = यहाँ (जहि) = नष्ट करनेवाला बन। उसी प्रकार (इव) = जैसे कि (दिवः अशनि:) = आकाश की बिजली (वृक्षम्) = वृक्ष को नष्ट कर देती है। शाप से शाप देनेवाला ही दग्ध हो जाए।
भावार्थ
हम शाप से उत्तेजित न हो उठे। शाप शाप देनेवाले को ही दग्ध कर देगा।
भाषार्थ
(शपथ) हे शपथरूपधारो परमेश्वर ! (नः) हमें, (परिवृङ्धि) हम में बसा हुआ भी तू, हमें परिवर्जित कर दे, त्याग दे, ( इव ) जैसे (अग्निः) आग (अदहन्) न दग्ध करती हुई (ह्रदम्) ह्रद को त्याग देती है। (अत्र) यहां अर्थात् हमारे हृदयों में रहता हुआ तू (नः) हमारे (शप्तारम्) शाप दाता का (जहि) हनन कर (इव) जैसे (दिवः) द्युलोक की ( अशनिः) विद्युत् [द्युलोक का हनन न करती हुई] (वृक्षम्) वृक्ष का हनन करती है ।
टिप्पणी
[ह्रद में पानी होता है, उस पानी में भी अग्नि विद्युत् रूप में रहतो है, परन्तु पानी का दहन नहीं करती, दिव् को अशनि दिव् में रहती है परन्तु दिव् का हनन नहीं करती, इसी प्रकार हे परमेश्वर ! शपथ रूप में हम में बसा हुआ मी तू हमारा हनन न कर]।
विषय
कठोर भाषण से बचना
भावार्थ
हे (शपथ) शपथ ! कठोर वचनरूप राजन् ! (अग्निः इव) अग्नि जिस प्रकार (हृदम्) तालाब को (अदहन्) नहीं बनाता हुआ उसे छोड़ जाता है, उसी प्रकार तू (नः अदहन्) हमें बिना जलाये (परिङ्ग्धि) सदा के लिए छोड़ दे। (दिवः, अशनिः) आकाश से गिरनेवाली बिजली जिस प्रकार (वृक्षम् इव) वृक्ष को मार जाती है और भीतर से जला देती है उसी प्रकार (नः) हम में से (शप्तारम्) व्यर्थ बुरा भला कहनेवाले शाप देनेवाले (अन्न) इस जीवन में (जहि) हे शाप ! तू नष्ट कर देता, उसको भीतर भीतर जला देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वस्त्ययनकामोऽथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
No Course Please
Meaning
O curse, burning like fire drying a pool of water, leave us. O protective chariot of divinity, destroy the curse and the cursor as the strike of thunder from above destroys the tree from its very root.
Translation
O curse, may you leave us unharmed, like a burning fire a pond. May you destroy him here, who has cursed us (saptaram) just as thunder-bolt of the sky destroys a tree.
Translation
O King ! avoid us, as consuming fire avoids the lake. Here you destroy the man who has ill-will against us, as the thunder-bolt falling from heavenly region destroys the tree.
Translation
O King, the exhibitor of the path of peace, avoid us, as consuming fire avoids the lake. Smite thou the man who curses us, as lightning from the sky strikes the tree.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(परि) सर्वतः (नः) अस्मान् (वृङ्धि) अ० १।२५।१। वर्जय (शपथ) म० १। हे शान्तिपथदर्शक (ह्रदम्) ह्राद स्वने−अच्। अगाधजलाशयम् (अग्निः) पावकः (इव) यथा (दहन्) भस्मीकुर्वन् (शप्तारम्) कुभाषिणम् (अत्र) अस्मिन् राज्ये (नः) अस्माकम् (जहि) नाशय, (दिवः) आकाशात् (वृक्षम्) स्वीकरणीयं द्रुमम् (इव) यथा (अशनिः) विद्युत् ॥
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