अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्युशमनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मन्युशमन सूक्त
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अ॒यं यो भूरि॑मूलः समु॒द्रम॑व॒तिष्ठ॑ति। द॒र्भः पृ॑थि॒व्या उत्थि॑तो मन्यु॒शम॑न उच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । य: । भूरि॑ऽमूल: । स॒मु॒द्रम् । अ॒व॒ऽतिष्ठ॑ति । द॒र्भ: । पृ॒थि॒व्या: । उत्थि॑त: । म॒न्यु॒ऽशम॑न: । उ॒च्य॒ते॒ ॥४३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यो भूरिमूलः समुद्रमवतिष्ठति। दर्भः पृथिव्या उत्थितो मन्युशमन उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । य: । भूरिऽमूल: । समुद्रम् । अवऽतिष्ठति । दर्भ: । पृथिव्या: । उत्थित: । मन्युऽशमन: । उच्यते ॥४३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
क्रोध की शान्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (यः) जो (भूरिमूलः) बहुत प्रतिष्ठावाला होकर (समुद्रम्) अन्तरिक्ष लोक तक (अवतिष्ठति) फैलता है। (दर्भ) वह दर्भ सुकर्मों का गूँथनेवाला पुरुष (पृथिव्याः) पृथिवी से (उत्थितः) उठकर (मन्युशमनः) क्रोध शान्त करनेवाला (उच्यते) कहा जाता है ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य विवेक द्वारा प्रतिष्ठित होकर अन्तरिक्ष आदि लोक तक अधिकार जमाता है, वह संसार में यशस्वी और शान्तचित्त माना जाता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(अयम्) (यः) दर्भः (भूरिमूलः) मूल प्रतिष्ठायां रोपणे च−क बहुप्रतिष्ठितः सन् (समुद्रम्) अ० १।३।८। अन्तरिक्षम्−निघ० १।३। (अवतिष्ठति) व्याप्य वर्तते (दर्भः) म० १। सुकर्मणां ग्रन्थकः (पृथिव्याः) भूमेः सकाशात् (उत्थितः) उपरि स्थितः सन्। अन्यत्पूर्ववत् ॥
पदार्थ
१. (अयं य:) = यह जो सामने (भूरिमूल:) = अनेक मूलों से युक्त-भूमि पर फैल जानेवाला (दर्भ:) = दर्भ (समद्रम् अवतिष्ठति) = [समद्रवन्त्यस्मादापः] उदकभूयिष्ट देश को आक्रान्त करके स्थिर होता है। यह (पृथिव्याः उत्थितः) = पृथिवी से उत्पन्न हुआ-हुआ दर्भ (मन्युशमनः उच्यते) = क्रोधविनाश का हेतु कहा जाता है।
भावार्थ
समुद्र के किनारे उत्पन्न हुआ-हुआ यह कुश मन्युशमन कहा गया है। इसका प्रयोग शान्ति देनेवाला है।
भाषार्थ
(अयम्) यह (यः) जो (भः) दर्भ (भूरिमूलः ) नाना जड़ों वाला (समुद्रम् ) उदकभूयिष्ठ प्रदेश को (अव अवक्रम्य) प्राप्त कर ( तिष्ठति ) स्थित होता है, और (पृथिव्याः) पृथिवी से (उत्थितः) ऊपर की ओर स्थित होता है, उठता है, वह (मन्युशमन उच्यते) “मन्युशमन" कहा जाता है।
टिप्पणी
[पैप्पलाद शाखा में "समुद्रम्" के स्थान में "पृथिव्याम्" पाठ है; समुद्रमवतिष्ठति = अथवा जलभूषिष्ठ प्रदेश को प्राप्त कर, जड़ों को अवस्तात् कर स्थित होता है।]
विषय
क्रोधशान्ति के उपाय।
भावार्थ
(दर्भः) दर्भ—दाभ जिस प्रकार (भूरि-मूलः) लम्बी गहरी और अधिक मूल वाला (पृथिव्याः उत्थितः) पृथिवी के ऊपर बठा हुआ होकर भी (समुद्रम् अव-तिष्ठति) समुद्र, आकाश के नीचे धीरता से खड़ा रहता है इसी प्रकार (अयम्) यह पुरुष जो (दर्भः) समाज का संगठन करने में समर्थ है वह भी (पृथिव्याः उत्थितः) अपनी विशाल मातृसमाज से उत्पन्न होकर (भूरि-मूलः) बहुत से मूल रूप आश्रयों पर प्रतिष्ठित होकर (समुद्रम् अव-तिष्ठति) समुद्र = महान् प्रभु की क्षत्रछाया में रहता है। वही लोक में सब के (मन्यु-शमनः) क्रोधों का शान्त करने द्वारा, सब कलहों को मिटाने वाला (उच्यते) कहा जाता है। अथवा दर्भ या दाभ रस्सी का प्रतिनिधि है। यदि क्रोधी क्रोध करे वो उसको प्रबल पुरुष बंधन में डालें कि उसका सब क्रोध उतर जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परस्परैकचित्तकरणे भृग्वङ्गिरा ऋधिः। मन्युशमनं देवता। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Calmness of Anger
Meaning
This darbha grass which is deep rooted grows close to the sea. Growing and rising from the earth and rising high, it is called pacifier of the passion and fury of anger.
Translation
This darbha, which is rich in roots, and grows in watery places; the darbha, which springs out of earth, is called soother of anger.
Translation
This grass which has plenty of roots spreads in the soil near ocean or where the waters meet. This grass which springs from that soil is called the calmer of anger.
Translation
Just as grass, abundant in roots, sprung out of Earth, remains calm below the space, so this man, competent to organize the society, born in his motherland, remains under the protection of God the Almighty, and is called the appeaser of wraths and the assuager of all strifes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अयम्) (यः) दर्भः (भूरिमूलः) मूल प्रतिष्ठायां रोपणे च−क बहुप्रतिष्ठितः सन् (समुद्रम्) अ० १।३।८। अन्तरिक्षम्−निघ० १।३। (अवतिष्ठति) व्याप्य वर्तते (दर्भः) म० १। सुकर्मणां ग्रन्थकः (पृथिव्याः) भूमेः सकाशात् (उत्थितः) उपरि स्थितः सन्। अन्यत्पूर्ववत् ॥
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