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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रचेता देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरीगर्भा जगती सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
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    वि॒द्म ते॑ स्वप्न ज॒नित्रं॑ देवजामी॒नां पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः। अन्त॑कोऽसि मृ॒त्युर॑सि॒। तं त्वा॑ स्वप्न॒ तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्न दुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । दे॒व॒ऽजा॒मी॒नाम् । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: । अन्त॑क: । अ॒सि॒ । मृ॒त्यु: । अ॒सि॒ । तम् । त्वा॒ । स्व॒प्न॒ । तथा॑ । सम् । वि॒द्म॒ । स: । न॒: । स्व॒प्न॒ । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒हि॒ ॥४६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्म ते स्वप्न जनित्रं देवजामीनां पुत्रोऽसि यमस्य करणः। अन्तकोऽसि मृत्युरसि। तं त्वा स्वप्न तथा सं विद्म स नः स्वप्न दुःष्वप्न्यात्पाहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । देवऽजामीनाम् । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: । अन्तक: । असि । मृत्यु: । असि । तम् । त्वा । स्वप्न । तथा । सम् । विद्म । स: । न: । स्वप्न । दु:ऽस्वप्न्यात् । पाहि ॥४६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    स्वप्न के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वप्न) हे स्वप्न (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (विद्म) हम जानते हैं, तू (देवजामीनाम्) इन्द्रियों की गतियों का (पुत्रः) शुद्ध करनेवाला और (यमस्य) नियम का (करणः) बनानेवाला (असि) है। तू (अन्तकः) अन्त करनेवाला (असि) है, और तू (मृत्युः) मरण करनेवाला (असि) है। (स्वप्न) हे स्वप्न ! (तम्) उस (त्वा) तुझको (तथा) वैसा ही (सम्) अच्छे प्रकार (विद्म) हम जानते हैं, (सः) सो तू (स्वप्न) हे स्वप्न ! (नः) हमें (दुःस्वप्न्यात्) बुरी निद्रा में उठे कुविचार से (पाहि) बचा ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सदा धर्म कर्म में लगे रहते हैं, उनके हृदय में सोते समय भी कुविचार नहीं आते ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(विद्म) जानीमः (ते) तव (स्वप्न) म० १। हे निद्रे (जनित्रम्) अ० १।२५।१। जन्मस्थानम् (देवजामीनाम्) नियो मिः। उ० ४।४३। इति या प्रापणे−मि, यस्य जः। इन्द्रियाणां जामीनां गतीनाम् (पुत्रः) अ० १।११।५। पुनातीति यः सः। पावकः। शोधकः (असि) (यमस्य) नियमस्य (करणः) करोतेः−ल्यु। कर्ता (अन्तकः) तत्करोतीत्युपसंख्यानम्। वा० पा० ३।१।२६। इति अन्त, णिच्−ण्वुल्। अन्तयतीति अन्तकः। अन्तकरः (असि) (मृत्युः) मरणकर्ता (तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (स्वप्न) (तथा) तेन प्रकारेण (सम्) सम्यक् (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (दुःस्वप्न्यात्) अ० ४।९।६। दुःस्वप्न−यत्। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् कुविचारात् ॥

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    विषय

    स्वपन्नावस्था

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    जैसे जागरूक में आत्मा का सम्बन्ध नेत्रों से विशेषकर रहता है उसके पश्चात स्वप्न अवस्था में आत्मा का सम्बन्ध मन के द्वारा रहता है और सुषुप्ति अवस्था में इस आत्मा का सम्बन्ध प्राण के द्वारा होता हैप्राण के द्वारा गमन करता रहता है और जीवन का सर्वत्र व्यापार शान्त हो जाता हैइसी प्रकार तीन प्रकार की विशेष समाधियों का वर्णन आता है जैसे जागरूक होते हैं और जागरूक समाधि निर्विकल्प मानी गई है वह ब्रह्माण्ड का विस्तार रूप धारण करना हैजैसे स्वप्न में मानव शरीर द्वारा पत्नीयां नहीं होती राष्ट्र नहीं होतापरन्तु यह मानव स्वतः उनका निर्माण करता रहता हैस्वप्न अवस्था में द्रव्य नहीं होता परन्तु द्रव्य मानव के द्वारा हैवह मन की प्रतिभा है जो संसार की एक नवीन रचना करने लगता हैनिर्धन से धनवान बन जाता है और धनी से निर्धन बन जाता हैतुम्हें स्मरण होगा राजा जनक को एक स्वप्न हुआ थावह ऐसा ही स्वप्न था कि उसी स्वप्न के कारण वह निर्धन बन गया थानाना अकृत ब्राह्मणों की सभा कीउसमें नाना शास्त्रार्थ हुए, विचार विनिमय हुए प्रश्नों का उत्तर देने के तत्पर होने लगेएक नवीन रचना होने लगती है।

    कण्ठ में जो शब्दों की रचना हो रही है, शब्द आ रहा है, शब्दों की रचना हुई श्वांस के साथ में शब्दों की रचना है, वाक्य के रूप में शब्दों की रचना हैंआन्तरिक जगत में शब्दों की रचना हैस्वप्न अवस्था है, तो उसमें भी शब्दों की रचना हो रही हैवह सूक्ष्म अङ्कुरों को साकार रूपों में भोगता रहता हैपत्नीयों का निर्माण करता रहता हैवह चक्र एक ऐसा चक्र है, जिसको जानने के पश्चात मानव जो स्वप्न में साकार रूप हैउसका जागरूकता के समान साकार रूप बन जाता है।

    यह जो आत्मा है यह जो ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान स्वरूप होने के नाते नाना प्रकार की प्रवृत्तियां हैं जो तुम्हें सुषुप्ति अवस्था में स्वप्न अवस्था में जागृत अवस्था में बाह्म जगत को दृष्टिपात करते हो

    इसी प्रकार जो मानव परमात्मा को व्याप्क रूप में दृष्टिपात करता है जिसको साम्य दृष्टि कहते हैं इस दृष्टि में संसार को दृष्टिपात करने लगता है तो उसके द्वारा पाप और पुण्य भी नहीं होता हैआत्मा का सम्बन्ध केवल प्राण के द्वारा रहता है

    परन्तु आज मुनिवरों! मैं प्रवेश की चर्चा नहीं करूंगाविचार यह देना चाहता हूँ कि मानो देखो, अपने चिन्तन की अवस्थित ब्रह्म लोक में प्रवेश करता हैमेरे प्यारे! जब यह निद्रा में तल्लीन होता है, सुषुप्ति में चला जाता है तो मुनिवरों! प्रत्येक प्राण के साथ मानो प्राण ही गति कर रहा हैतारतम्य लग रहा हैसुषुप्ति अवस्था में वह चिन्तन करे या न करे परन्तु उसका महापुरुष का ऐसा तारतम्य चल रहा है, जैसे माला में मनके होते हैं, और माला के मनके एक सूत्र में पिरोए जाते हैंतो यह मन की नाना प्रकार की चञ्चलता हैवह प्राण रूपी सूत्र में ओत प्रोत हो जाती हैजब वह प्राण रूपी सूत्र में ओत प्रोत होती है, तो प्राण रूपी क्षेत्र में प्रवेश करके उसका चिन्तन प्रारम्भ रहता हैचिन्तन की गतियां चलती रहती हैं।

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    विषय

    अन्तकः असि, मृत्युः असि

    पदार्थ

    १. (स्वप्न) = स्वप्न! हम (ते जनित्रं विद्य) = तेरे जन्म को जानते हैं। तू (देवजामीनां पुत्रः असि) = इन्द्रियों से उत्पन्न अनुभवजन्य वासनाओं का पुत्र है। तू (यमस्य करण:) = यम का सबसे महान् साधन है। [ऐतरेय आरण्यक ३.२.४ में कहा है-अथ स्वप्नः । पुरुष कृष्णं कृष्णादत पश्यति, स एनं हन्ति-कई स्वप्न मृत्यु का कारण हो जाते हैं] | (अन्तकः असि) = तू अन्त: करनेवाला है, (मृत्युः असि) = मृत्यु ही है। २. हे (स्वप्न) = स्वप्न! (तं त्वा) = उस तुझे (सं बिन्ध) = पहले कहे हुए प्रकार से सम्यक् जानते हैं। हे (स्वप्न) = स्वप्न! (स:) = वह तू (नः) = हमें दुःध्यप्यात् (दुःस्वप्नजनित) = भय से (पाहि) = रक्षित कर।

    भावार्थ

    स्वप्न इन्द्रियजनित अनुभवों से होनेवाली वासनाओं से उत्पन्न होते हैं। ये शरीर में विकृति लाकर मृत्यु का कारण भी बन जाते हैं। हम दु:स्वों से बचे ही रहें।

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    भाषार्थ

    (स्वप्न) हे स्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (विद्म) हम जानते हैं, (देवजामीनाम्१) इन्द्रियों की पत्नियों वृत्तियों का (पुत्रः असि) तू पुत्र है, (यमस्य) दिन का यम-नियमरूपी चित्तवृत्तियों का तू (करण:) कर्म है। (अन्तकः असि) तू दुःस्वप्नों और उनके परिणामों को अन्त कर देता है, समाप्त कर देता है, (मृत्युः असि) तू उनके लिए मूत्युरूप है। (स्वप्न) हे स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको (तथा) उन गुणों वाला है (सं विद्म) यह हम सम्यक्तया जानते हैं। (स्वप्न) हे स्वप्न ! (स:) वह तू (नः) हमें (दुष्वप्न्यात्) दुःस्वप्न और उसके दुष्परिणामों से (पाहि) रक्षित कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "स्वप्न" से अभिप्राय है सात्त्विक स्वप्न। और दुःस्वप्न हैं राजसिक और तामसिक स्वप्न। जिस अनुपात से जीवन में सात्विक स्वप्न उत्पन्न होते रहते हैं, उसी अनुपात से राजसिक और तामसिक स्वप्नों का अन्त और मृत्यु होती जाती है। स्वप्न का सम्वोधन कविता शैली से है। इस प्रकरण की विशेष व्याख्या अथर्व का १६। सूक्त ५।८-१० में, तथा अथर्व १६।५ के समग्र सूक्त में सामान्य रूप से कर दी गई है।]। [१. देवजामीनाम् पूत्र:= इन्द्रियों की वृत्तियों द्वारा उत्पादित चित्त वृत्तियों का पुत्र स्वप्न।]

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    विषय

    स्वप्न का रहस्य।

    भावार्थ

    हे स्वप्न ! (ते जनित्र विद्म) हम तेरे स्वरूप और उत्पत्ति के रहस्य को जानते हैं कि तू (देव-जामीनाम्) ज्ञान को उत्पन्न करने वाली देव-इन्द्रियगण की सूक्ष्म शक्तियों का या ज्ञानतन्तुओं का जो कि मस्तिष्क में आश्रित हैं (पुत्रः) पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। पर तो भी (यमस्य करणः) नियामक प्राणात्मा का तू करण अर्थात् कार्य है। हे स्वप्न ! तू (अन्तकः असि) अन्त करने वाला (मृत्युः असि) और मार देने वाला है। हे स्वप्न ! (तम्) उस तुझको (तथा) जैसा तू है इसी प्रकार (सं विद्म) हम भली प्रकार जानते हैं (सः) वह तू (नः) हमें (दुःस्वप्न्यात्) दुष्ट स्वप्न से जो मन और शरीर को गिराने वाले भय, काम और वीर्यनाश के प्रयोजक हैं उनसे (पाहि) बचा।

    टिप्पणी

    जामिः स्त्री इति सायणः। भगिनी इति ह्विटनिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। स्वप्नो दुःस्वप्ननाशनं वा देवता। १ ककुम्मती विष्टारपंक्तिः, २ त्र्यवसाना शक्वरीगर्भा पञ्चपदा जगती। ३ अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Dream

    Meaning

    O dream, we know your origin. You are the product of mind and senses and things related to them in psychic association. You are the instrument of the psychic laws of life. As dream, you can be the end, harbinger of the end, a premonition, death itself. So O dream, we know as and what you are. O dream, save us from evil dreams. (Come at your best if at all.)

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    Translation

    O dream, we know your birth. You are the son of the sisters of the bounties of nature. You are an instrument of controller Lord (Yama). You are the one that causes an end (antaka). You are the death. O dream, we know you thoroughly as such. So may you, O dream, save us from evil dreams.

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    Translation

    We know the birth of the dream. It is the son of the senses who are the sisters of mind and the product of vital air. It is finisher as well as death of the phases of awakening and sound sleep. So we, know well what it is, let it not involve us in evil dreams.

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    Translation

    O dream, we know thy birth. Thou art the son of the forces of organs, and product of the soul. Thou art the Finisher. Thou art Death. So well we know thee who thou art. O dream guard us from evil thoughts.

    Footnote

    Dream does not exist in the waking (Jagrit) state, nor in (sushupti) profound sleep. Day is the father of dreams, as what we see and think in the day time, appears in the shape of dreams at night. Dream is spoken of as Arru, i.e., the enemy of long life. Dreams decrease age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(विद्म) जानीमः (ते) तव (स्वप्न) म० १। हे निद्रे (जनित्रम्) अ० १।२५।१। जन्मस्थानम् (देवजामीनाम्) नियो मिः। उ० ४।४३। इति या प्रापणे−मि, यस्य जः। इन्द्रियाणां जामीनां गतीनाम् (पुत्रः) अ० १।११।५। पुनातीति यः सः। पावकः। शोधकः (असि) (यमस्य) नियमस्य (करणः) करोतेः−ल्यु। कर्ता (अन्तकः) तत्करोतीत्युपसंख्यानम्। वा० पा० ३।१।२६। इति अन्त, णिच्−ण्वुल्। अन्तयतीति अन्तकः। अन्तकरः (असि) (मृत्युः) मरणकर्ता (तम्) तादृशम् (त्वा) त्वाम् (स्वप्न) (तथा) तेन प्रकारेण (सम्) सम्यक् (सः) स त्वम् (नः) अस्मान् (दुःस्वप्न्यात्) अ० ४।९।६। दुःस्वप्न−यत्। दुर् दुष्टेषु स्वप्नेषु भवात् कुविचारात् ॥

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