अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
नि गावो॑ गो॒ष्ठे अ॑सद॒न्नि मृ॒गासो॑ अविक्षत। न्यू॒र्मयो॑ न॒दीनं॒ न्यदृष्टा॑ अलिप्सत ॥
स्वर सहित पद पाठनि । गाव॑: । गो॒ऽस्थे । अ॒स॒द॒न् । नि । मृ॒गास॑: । अ॒वि॒क्ष॒त॒ । नि । ऊ॒र्मय॑: । न॒दीना॑म् । नि । अ॒दृष्टा॑: । अ॒लि॒प्स॒त॒ ॥५२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत। न्यूर्मयो नदीनं न्यदृष्टा अलिप्सत ॥
स्वर रहित पद पाठनि । गाव: । गोऽस्थे । असदन् । नि । मृगास: । अविक्षत । नि । ऊर्मय: । नदीनाम् । नि । अदृष्टा: । अलिप्सत ॥५२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के दोष के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(गावः) किरणें (गोष्ठे) किरणों के स्थान, अन्तरिक्ष में (नि) बैठ कर (असदन्) ठहरी हैं, (मृगासः) खोजनेवाले पुरुषों ने (नि अविक्षत) [अपने कामों में] प्रवेश किया है। (नदीनाम्) स्तुति करनेवाली प्रजाओं की (ऊर्मयः) गतिक्रियाओं ने (अदृष्टाः) न दीखती हुई पंक्तियों को (नि नि) अति निश्चय करके (अलिप्सत) पाने की इच्छा की है ॥२॥
भावार्थ
सूर्य के चमकने पर सब मनुष्य आदि प्राणी परमेश्वर की स्तुति करते हुए अभीष्ट पदार्थो को खोजकर अपने-अपने कर्तव्य कर्म करते हैं ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १।१९१।४ ॥
टिप्पणी
२−(नि) अन्तर्भूय (गावः) किरणाः (गोष्ठे) गवां किरणानां स्थाने अन्तरिक्षे (असदन्) निषण्णा अभूवन् (नि) (मृगासः) मृग अन्वेषणे−क, असुक् च। मृगाः। अन्वेषकाः पुरुषाः (अविक्षत) नेर्विशः। पा० १।३।१७। इत्यात्मनेपदम्। शल इगुपधादनिटः क्सः। पा० ३।१।४५। इति लुङि च्लेः क्सः। स्वकार्याणि प्रविष्टा अभूवन् (नि नि) निश्चयेनैव (ऊर्मयः) अर्त्तेरूच्च। उ० ४।४४। इति ऋ गतौ−मि। गतिक्रियाः (नदीनाम्) नद−ङीप्। नदः स्तोता−निघ० ३।१६। स्तोत्रीणां प्रजानाम् (अदृष्टाः) अगोचराः पङ्क्तीः। अन्धकारयुक्तान् पदार्थान् (अलिप्सत) लभेः सनि। सनिमीमाघुरभलभ०। पा० ७।४।५४। इति अचः स्थाने इस्। स्कोः संयोगा०। पा० ८।२।२९। सकारलोपः। लब्धुमैच्छन् ॥
विषय
अन्तर्मुख-यात्रा
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार सूर्य-सम्पर्क से स्वस्थ शरीरवाले व्यक्ति के जीवन में (गावः) = इन्द्रियाँ (गोष्ठ) = शरीररूप गोष्ठ में (नि असदन) = निश्चय से स्थित होती हैं। ये विषयों में भटकती नहीं रहती। अब (मृगास:) = ये आत्मान्वेषण की वृत्तिवाले व्यक्ति (नि अविक्षत) = हृदयान्तरिक्ष में ही प्रवेश करनेवाले होते हैं। २. इन (नदीनाम्) = प्रभु का स्तवन करनेवालों की (ऊर्मयः) = 'शोकमोही क्षुत्पिपासे जरामृत्यू षर्मय:'-छह ऊर्मियाँ, अर्थात् जीवन-समुद्र में उठनेवाली शोक-मोह, भूख-प्यास, जरा व मृत्युरूप छह तरङ्गे (नि अदृष्ट:) = निश्चय से अदृष्ट हो जाती हैं। इनके जीवन में ये छह तरङ्गे नहीं उठती। ये तो (नि अलिप्सत) = निश्चय से उस आत्मतत्त्व को ही पाने की कामनावाले होते हैं।
भावार्थ
स्वस्थ पुरुष की इन्द्रियाँ विषयों में नहीं भटकतीं। ये आत्मान्वेषक हृदयान्तरिक्ष में प्रवेश करते हैं। इनके जीवन समुद्र में शोक-मोह आदि की तरङ्गे नहीं उठतीं। ये निश्चय ही प्रभु-प्राप्ति की कामनाबाले होते हैं।
भाषार्थ
(गावः) सूर्य की रश्मियां (गोष्ठे) रश्मियों के स्थान सूर्य में (नि असदन्) नितरां स्थित हो गई हैं, (मृगासः) स्थान का अन्वेषण करने वाली रश्मियों ने (नि) नितरां (अविक्षत) निज स्थान में प्रवेश पा लिया है। (नदीनाम्) स्तुति करने वाली प्रजाओं की (ऊर्मयः) प्रात: कालीन स्तुति तरङ्गों ने (नि) नितरां (अलिप्सत१) प्रापणीय परमेश्वर को प्राप्त करना चाहा है, (अदृष्टाः) तथा अदृष्ट अर्थात् भावाकाल में होने वाली प्रातः कालीन स्तुति तरङ्गे भी परमेश्वर को स्तुति काल में पाती रहेंगी।
टिप्पणी
[मुगास; मृगाणां मार्गणकर्मणामादित्यरश्मीनाम् (निरुक्त १३ १४)।। २(१)। ७२ (१४), निरुक्त अतिस्तुति प्रकरण। गाव:= 'सर्वे रश्मयो गाव उच्यन्ते। ता वां वास्तूनि उश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः" (ऋ० १।१५४।६) (निरुक्त २।२।८)। "मुगासः:" द्वारा उन रश्मियों का कथन हुआ है जो कि प्रवेश के लिये स्थान का अभी अन्वेषण कर रहीं थीं। ये भावी काल की अर्थात् आने वाले दिनों की रश्मियां हैं, उनके सम्बन्ध में भी सन्तोष प्रकट किया है कि "उन्होंने भी नितरां निज स्थान में प्रवेश पा लिया है"। इस प्रकार की विचित्र उक्तियां वेदों में पाई जाती हैं। गोष्ठे = गौः (सूर्य रश्मियां)+ष्ठ (उन की स्थिति का स्थान सूर्य)। नदीनाम्; "नदः स्तोतृनाम" (निघं० ३।१६)। 'नदी" पद "नद:" का स्त्रीलिङ्गी रूप है, जो कि स्त्रीलिङ्गी स्तोताओं का निर्देशक है। अत: "प्रजा" अर्थ किया है। "ऊर्मयः" स्तुति तरङ्गे हैं, एतर्थ देखो यजु० (१७।९३,९९)। मृगाणाम्= मृग अन्वेषणे (चुरादिः)। मन्त्र में उदित हो गए सूर्य के सम-काल की घटनाओं का कथन किया है]। [१. लब्धु ऐच्छन् (सायण)।]
विषय
तमोविजय और ऊर्ध्वगति।
भावार्थ
जब योगी का आत्मा आदित्य के समान समस्त तामस आवरणों से ऊपर उठ जाता है तब (गावः) जिस प्राकर शान्त मध्याह्न में गौएँ विश्राम के लिये है (गोष्ठे) गोशाला में (नि-असदन्) आ जाती हैं और विश्राम लेती हैं उसी प्रकार यह प्राण भी उस अपने आश्रयभूत गोष्ठ-आत्मा में ही विश्राम करते हैं। वे बाहर विषयतृष्णा में नहीं भागते। और (मृगासः) विषयों को खोजनेवाली इन्द्रियें (निअविक्षत) सर्वथा भीतर ही निलीन हो जाती हैं। किस तरह से ? जैसे (नदीनाम्) वायुओं के शान्त हो जाने पर या वेग के शान्त हो जाने पर नदियों की (ऊर्मयः) विशाल तरंगें भी (निः) उसी में लीन हो जाती हैं उसी प्रकार ये प्राणेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियें भी (नि-अदृष्टाः) सर्वथा प्रत्यक्ष न होकर तन्मय, तल्लीन होकर (नि अलिप्सत) उसी आत्मा को प्राप्त करने या खोजने में लग जाती हैं।
टिप्पणी
‘निकेतयोजनानां’। इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भागलिर्ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Gifts of the Sun
Meaning
The cows are settled in the stall, wild beasts are back to their place, the waves and ripples of the streams are invisible, covered in darkness. (This is the evening scene after sunset.)
Subject
Gavah : Cows
Translation
When cows settle in their stalls, the wild beasts retreat to their Jairs, the waves of the rivers calm down, then the unseen creatures infect me with their venom. (Also Reg. I 191.4)
Translation
The cows are settled in their pen, the wild animals have sought their lairs, the wanelet of the brook are merged in them and are beheld no more.
Translation
At the time of sun-set, the kine had settled in their pen, wild animals had sought their lairs; the wavelets of the brooks had passed away, and being unseen were longed for to be seen.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(नि) अन्तर्भूय (गावः) किरणाः (गोष्ठे) गवां किरणानां स्थाने अन्तरिक्षे (असदन्) निषण्णा अभूवन् (नि) (मृगासः) मृग अन्वेषणे−क, असुक् च। मृगाः। अन्वेषकाः पुरुषाः (अविक्षत) नेर्विशः। पा० १।३।१७। इत्यात्मनेपदम्। शल इगुपधादनिटः क्सः। पा० ३।१।४५। इति लुङि च्लेः क्सः। स्वकार्याणि प्रविष्टा अभूवन् (नि नि) निश्चयेनैव (ऊर्मयः) अर्त्तेरूच्च। उ० ४।४४। इति ऋ गतौ−मि। गतिक्रियाः (नदीनाम्) नद−ङीप्। नदः स्तोता−निघ० ३।१६। स्तोत्रीणां प्रजानाम् (अदृष्टाः) अगोचराः पङ्क्तीः। अन्धकारयुक्तान् पदार्थान् (अलिप्सत) लभेः सनि। सनिमीमाघुरभलभ०। पा० ७।४।५४। इति अचः स्थाने इस्। स्कोः संयोगा०। पा० ८।२।२९। सकारलोपः। लब्धुमैच्छन् ॥
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