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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    अव॑ म॒न्युरवाय॒ताव॑ बा॒हू म॑नो॒युजा॑। परा॑शर॒ त्वं तेषां॒ परा॑ञ्चं॒ शुष्म॑मर्द॒याधा॑ नो र॒यिमा कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । म॒न्यु: । अव॑ । आऽय॑ता । अव॑ । बा॒हू इति॑ । म॒न॒:ऽयुजा॑ । परा॑ऽशर । त्वम् । तेषा॑म् । परा॑ञ्चम् । शुष्म॑म् । अ॒र्द॒य॒ । अध॑ । न॒: । र॒यिम् । आ । कृ॒धि॒ ॥६५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव मन्युरवायताव बाहू मनोयुजा। पराशर त्वं तेषां पराञ्चं शुष्ममर्दयाधा नो रयिमा कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । मन्यु: । अव । आऽयता । अव । बाहू इति । मन:ऽयुजा । पराऽशर । त्वम् । तेषाम् । पराञ्चम् । शुष्मम् । अर्दय । अध । न: । रयिम् । आ । कृधि ॥६५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मन्युः) क्रोध (अव=अवगच्छतु) ढीला होवे, (आयता) फैले हुए शस्त्र (अव=अवगच्छन्तु) ढीले होवें (मनोयुजा) मन के साथ संयोगवाली (बाहू) भुजायें (अव=अवगच्छताम्) नीचे होवें। (पराशर) हे शत्रुनाशक सेनापति ! (त्वम्) तू (तेषाम्) उन [शत्रुओं] का (शुष्मम्) बल (पराञ्चम्) ओंधा करके (अर्दय) मिटा दे, (अध) और (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन (आ कृधि) सन्मुख कर ॥१॥

    भावार्थ

    चतुर सेनापति शत्रुओं को हराकर शान्तचित्त होकर प्रजा में धन की बढ़ती करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अव) अवगच्छतु (मन्युः) क्रोधः (अव) अवगच्छन्तु (आयता) आयतानि प्रसारितानि शस्त्राणि (अव) अवगच्छताम् (बाहू) भुजौ (मनोयुजा) सत्सूद्विषद्रुहदुहयुज०। पा० ३।२।६१। इति मनः+युजिर् योगे−क्विप्। मनसा संयोजकौ (पराशर) परागत्य शृणाति शत्रून्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति परा+शॄ हिंसायाम्−अप्। इन्द्रोऽपि पराशर उच्यते परशातयिता यातूनाम्−निरु० ६।३०। हे शत्रुनाशक वीर सेनापते (त्वम्) (तेषाम्) शत्रूणाम् (पराञ्चम्) पराङ्मुखं कृत्वा (शुष्मम्) शोषकं बलम् (अर्दय) नाशय (अव) अथ। अनन्तरम् (रयिम्) धनम् (आ कृधि) अभिमुखं कुरु ॥

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    विषय

    शत्रुबाधा-निवारण

    पदार्थ

    १. शत्रु-सम्बन्धी (मन्युः) = क्रोध (अव) = हमसे दूर हो। (आयता) = आयम्यमान धनुष आदि आयुध (अव) = हमसे दूर हों। (मनोयुजा बाहू) = मनसहित इन शत्रुओं की भुजाएँ (अव) = अवाचीन हों आयुधों के उठाने में अशक्त हों। २. हे (पराशर) = [पराशृणाति शत्रून्] शत्रुओं को सुदुर नष्ट करने वाले इन्द्र ! (त्वम्) = आप (तेषाम्) = उन शत्रुओं के (शुष्मम्) = शत्रुशोषक बल को (पराञ्चम्) = पराङ्मुख (अर्दय) = बाधित कीजिए-हमपर इस बल का आक्रमण न हो, ऐसी व्यवस्था कीजिए। (अध) = अब शत्रुओं को पराङ्मुख करने के पश्चात् (न:) = हमारे लिए (रयिम्) = ऐश्वर्य को (आकृधि) = समन्तात् प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    शत्रुओं के क्रोध व आयुधों को हमसे दूर कीजिए। उनके मन में आक्रमण का उत्साह न हो और भुजाओं में आक्रमण की शक्ति न हो। शत्रुओं के बल को हमसे दूर बाधित कौजिए और हमें ऐश्वर्यशाली बनाइए।

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    भाषार्थ

    (मन्युः) [शत्रु का] क्रोध (अव=अवस्तात्) नीचे हो जाए, (आयता=आयतानि) ताने गये धनुष् (अव) अवनत हो जाएँ, ढीले हो जाएँ। (मनोयुजा=मनोयुजौ) विचयैषी मनों द्वारा प्रयुक्त हुए (बाहू) दोनों बाहु (अव) नीचे हो जाएँ। (पराशर) "पर" अर्थात् शत्रुओं का "आ" पूर्णरूप से "शर" विनाश करने वाले ! [इन्द्र=सम्राट् !] (त्वम्) तू (तेषाम्) उन शत्रुओं के (पराञ्चम् ) पराङ्मुख हुए (शुष्मम्) सैन्यबल को (अर्दय) हिंसित कर, (अधा=अथा) तत्पश्चात् (रयिम्) उनके धन को (न:) हमें (आ कृधि) प्राप्त करा।

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    विषय

    विजयी, दमनकारी राजा का शत्रुओं को निःशस्त्र करना।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (मन्युः) तेरा क्रोध (अव) नीचे अर्थात् शान्त रहे। (आयता) उठे हुए शस्त्र भी (अव) नीचे हो जायँ। (मनोयुजा बाहू) मनके संकल्प के साथ उठने वाली बाहुएं भी (अव) नीचे ही रहें। तिस पर भी हे (पराशर) दूर के शत्रुओं के नाशक इन्द्र ! (त्वम्) तू (तेषाम्) शत्रुओं के (पराञ्चम्) दूर से दूर वर्तमान (शुष्मम्) बल या सेना विभाग को (अर्दय) विनाश कर। (अध) और (नः) हमें (रयिम्) धन ऐश्वर्यवान् (आ कृधि) प्राप्त करा। अथवा शत्रुओं का क्रोध, उद्यत शस्त्र और बाहुएं नीची हों और हे इन्द्र ! तू उनके दूरके सेनादल को भी पीड़ित कर, हमें धन प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। चन्द्र उत इन्द्रः पराशरो देवता। १ पथ्यापंक्तिः, २-३ अनुष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory Over Enemy

    Meaning

    Let anger be off. Let the bow drawn be down. Let the two arms raised with passionate mind be down. O mighty archer, down and destroy the strength of the enemies and do honour and win the wealth of credit for us. (This mantra suggests ‘war’ upon the enemies outside and the enemies within, both to be fought out when anger is calmed, the drawn bow is eased of tension, the passions are cooled, but the archer, soulful commander, is strong in the essential self. Such a victory without anger and passion brings the wealth of credit for man, victorious over the unhuman.)

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    Subject

    Parasarabi Inarah

    Translation

    Let your fury relax, let your stretched (bows) relax; let your two arms, in unison with mind, relax. May you, O destroyer, shake their strength away: Then may you grant riches to us.

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    Translation

    O King! Let your object of life be one and the same. O King! relax your anger, loose the stretched and raised arms that act with mind, overcome and drive away the might of these foemen, O destroyer! and bring opulence to us.

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    Translation

    O foe-killing Commander of the army, appease thy indignation, lower thy uplifted instruments, hold down thy arms that act with mind. Do thou over-come and drive these foemen's might away, and then bring opulence to us!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अव) अवगच्छतु (मन्युः) क्रोधः (अव) अवगच्छन्तु (आयता) आयतानि प्रसारितानि शस्त्राणि (अव) अवगच्छताम् (बाहू) भुजौ (मनोयुजा) सत्सूद्विषद्रुहदुहयुज०। पा० ३।२।६१। इति मनः+युजिर् योगे−क्विप्। मनसा संयोजकौ (पराशर) परागत्य शृणाति शत्रून्। ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति परा+शॄ हिंसायाम्−अप्। इन्द्रोऽपि पराशर उच्यते परशातयिता यातूनाम्−निरु० ६।३०। हे शत्रुनाशक वीर सेनापते (त्वम्) (तेषाम्) शत्रूणाम् (पराञ्चम्) पराङ्मुखं कृत्वा (शुष्मम्) शोषकं बलम् (अर्दय) नाशय (अव) अथ। अनन्तरम् (रयिम्) धनम् (आ कृधि) अभिमुखं कुरु ॥

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