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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - बृहस्पतिः, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वर्चस् प्राप्ति सूक्त
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    मयि॒ वर्चो॒ अथो॒ यशोऽथो॑ य॒ज्ञस्य॒ यत्पयः॑। तन्मयि॑ प्र॒जाप॑तिर्दि॒वि द्यामि॑व दृंहतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑ । वर्च॑: । अथो॒ इति॑ । यश॑: । अथो॒ इति॑ । य॒ज्ञस्य॑ । यत् । पय॑: । तत् । मयि॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । दि॒वि । द्याम्ऽइ॑व ।‍ दृं॒ह॒तु॒ ॥६९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मयि वर्चो अथो यशोऽथो यज्ञस्य यत्पयः। तन्मयि प्रजापतिर्दिवि द्यामिव दृंहतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मयि । वर्च: । अथो इति । यश: । अथो इति । यज्ञस्य । यत् । पय: । तत् । मयि । प्रजाऽपति: । दिवि । द्याम्ऽइव ।‍ दृंहतु ॥६९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    यश की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (मयि) मुझ में (वर्चः) प्रताप, (अथो) और (यशः) यश हो, (अथो) और (यज्ञस्य) देवपूजा आदि यज्ञ का (यत्) जो (पयः) सार है, (तत्) उसको भी (मयि) मुझ में (प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर (दृंहतु) दृढ़ करे, (इव) जैसे (दिवि) अन्तरिक्ष में (द्याम्) सूर्यमण्डल को ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर ने आकाश में सूर्य को स्थिर करके आकर्षण, प्रकाश आदि द्वारा महा उपकारी बनाया है, वैसे ही मनुष्य उत्तम शिक्षा प्राप्त करके यशस्वी होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(मयि) प्रयत्नशीले (वर्चः) प्रतापः (अथो) अपि च (यशः) कीर्त्तिः (अथो) (यज्ञस्य) देवपूजादिकस्य (यत्) (पयः) तत्त्वम्। फलम् (तत्) पयः (मयि) (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (दिवि) अन्तरिक्षे (द्याम्) दीप्यमानं सूर्यमण्डलम् (इव) यथा (दृंहतु) दृहि वृद्धौ। दृढीकरोतु वर्धयतु ॥

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    विषय

    वर्चः, यश:, यज्ञस्य पय:-ज्ञान

    पदार्थ

    १. (मयि) = मेरे जीवन में (वर्च:) = वर्चस् [Vitality] प्राणशक्ति हो, (अथ उ) = और निश्चय से (यश:) = यश हो-मेरे सब कार्य यशस्वी हों, (अथ उ) = और अब (यज्ञस्य) = यज्ञ की (यत्) = जो (पयः) = आप्यायनशक्ति है, वह (मयि) = मुझमें हो। २. (प्रजापतिः) = सब प्रजाओं का रक्षक वह प्रभु इन 'वर्चस, यशस् व यज्ञपयस्' को मेरे जीवन में इसप्रकार (दृन्ह्तु) = दृढ़ करे (इव) = जैसेकि (दिवि द्याम्) = घुलोक में दीप्यमान ज्योतिमण्डल को वे दृढ़ करते हैं। प्रभु मेरे मस्तिष्करूप धुलोक में भी ज्ञान-विज्ञान के सूर्य व नक्षत्रों को स्थापित करें।

    भावार्थ

    -प्रभुकृपा से मेरा जीवन बर्चस, यशस्, यज्ञपयस् व ज्ञानवाला हो।

    विशेष

    वर्चस्, यशस्, यज्ञपयस् व ज्ञान को प्राप्त करनेवाला यह व्यक्ति 'कांकायन [कंक गतौ] खूब गतिशील बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (मयि) मुझ में (वर्चः) ब्राह्मणवर्चस या विद्याध्ययन के तेज को, (अथो) तथा (यशः) कीर्ति को, (अथो) तथा (यज्ञस्य) यज्ञ का (यत्) जो (पयः) सारभूत फल है (तत्) उस को (प्रजापति:) प्रजाओं का स्वामी परमेश्वर (मयि) मुझ में (दृंहतु) सुदृढ़ रूप में स्थापित करे, (दिवि) द्युलोक में (इव) जैसे (द्याम्) द्यो को उसने स्थापित किया हुआ है, सुदृढ़ रूप में।

    टिप्पणी

    [यज्ञस्य = अथवा ब्रह्मचर्य-यज्ञ का। यथा "पुरुषो वाव यज्ञः" (छान्दोग्य उप० ३॥१६)]।

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    विषय

    उत्तम कर्म ही करूँ

    शब्दार्थ

    (परमेष्ठी) परमोत्तम स्थान पर स्थित परमात्मा (प्रजापतिः) सर्वप्रजा का पालक जिस प्रकार तू (दिवि) द्युलोक में (द्याम्) द्युति, प्रकाश को, सूर्य को स्थिर रखता है (इव) इसी प्रकार (मयि) मुझ उपासक में (वर्च:) ब्रह्मतेज-बल, कान्ति (अथो) और (यश:) कीर्ति (अथो) और (यज्ञस्य) उत्कृष्ट कर्मों की (यत्) जो (पय:) वृद्धि है उसको (दृंहतु) दृढ़ कर, बढ़ा ।

    भावार्थ

    परमात्मा परमोत्तम स्थान पर स्थित है। वह हमें भी ऐसा बल और शक्ति प्रदान करे कि हम भी संसार में परमोत्तम स्थान प्राप्त करने में समर्थ हो सकें । परमात्मा सबका पालक, पोषक और रक्षक हैं । वेद में अन्यत्र कहा भी है – ‘विश्वं शृणोति पश्यति’ (ऋ० ८। ७८ । ५) वह सबकी सुनता है और सबको देखता है; अतः भक्त परमात्मा से प्रार्थना करता है — प्रभो ! जिस प्रकार आपने सूर्य को द्युलोक में स्थित कर रक्खा है, इसी प्रकार मुझ उपासक में भी निम्न गुणों को स्थिर और दृढ़ कीजिए - १. मैं बल, कान्ति और तेज से युक्त बनूँ । २. संसार में मेरी कीर्ति हो । ३. मैं सदा परोपकार, परसेवा आदि उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ कर्मों को ही करता रहूँ ।

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    विषय

    यश और तेज की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजा का पालक परमेश्वर जिस प्रकार (दिवि द्याम् इव) द्युलोक में सूर्य को दृढ़ता से स्थापित करता है उसी प्रकार वह प्रजापति, पिता (मयि) मेरे शरीर में (वर्चः) तेज (यशः) बल और (यत्) जो (यज्ञस्य) यज्ञ = आत्मा का (पयः) सारभूत बल ज्ञान है (तत्) उसको (मयि) मेरे में धारण करावे।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘परमेष्ठी प्रजा’—इति साम०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वर्चस्कामो यशस्कामश्चाथर्वा ऋषिः। बृहस्पतिरुताश्विनौ देवता। अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Honour and Grace

    Meaning

    May Prajapati bless me with lustre, honour and the nectar inspiration of yajna and raise and confirm me in honour like light in heaven.

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    Translation

    What lustre, glory and the essence of sacrifice is there, may the Lord of creatures establish that in me firmly, as light is in the sky.

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    Translation

    May the Master of the universal subjects establish in me strength and fame, in me power of performing sacrificing feats in the way as he has established the sun in the heavenly region.

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    Translation

    May God, the Nourisher of His subjects establish in me strength, fame, and soul force, as He has established the sun in heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(मयि) प्रयत्नशीले (वर्चः) प्रतापः (अथो) अपि च (यशः) कीर्त्तिः (अथो) (यज्ञस्य) देवपूजादिकस्य (यत्) (पयः) तत्त्वम्। फलम् (तत्) पयः (मयि) (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (दिवि) अन्तरिक्षे (द्याम्) दीप्यमानं सूर्यमण्डलम् (इव) यथा (दृंहतु) दृहि वृद्धौ। दृढीकरोतु वर्धयतु ॥

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