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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
    ऋषिः - काङ्कायन देवता - अघ्न्या छन्दः - जगती सूक्तम् - अघ्न्या सूक्त
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    यथा॑ मां॒सं यथा॒ सुरा॒ यथा॒क्षा अ॑धि॒देव॑ने। यथा॑ पुं॒सो वृ॑षण्य॒त स्त्रि॒यां नि॑ह॒न्यते॒ मनः॑। ए॒वा ते॑ अघ्न्ये॒ मनोऽधि॑ व॒त्से नि ह॑न्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । मां॒सम् । यथा॑ । सुरा॑ । यथा॑ । अ॒क्षा: । अ॒धि॒ऽदेव॑ने । यथा॑ । पुं॒स: । वृ॒ष॒ण्य॒त: । स्त्रि॒याम् । नि॒ऽह॒न्यते॑ । मन॑: । ए॒व । ते॒ । अ॒घ्न्ये॒ । मन॑: । अधि॑ । व॒त्से । नि । ह॒न्य॒ता॒म् ॥७०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा मांसं यथा सुरा यथाक्षा अधिदेवने। यथा पुंसो वृषण्यत स्त्रियां निहन्यते मनः। एवा ते अघ्न्ये मनोऽधि वत्से नि हन्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । मांसम् । यथा । सुरा । यथा । अक्षा: । अधिऽदेवने । यथा । पुंस: । वृषण्यत: । स्त्रियाम् । निऽहन्यते । मन: । एव । ते । अघ्न्ये । मन: । अधि । वत्से । नि । हन्यताम् ॥७०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर की भक्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (मांसम्) ज्ञान, (यथा) जैसे (सुरा) ऐश्वर्य, (यथा) जैसे (अक्षाः) अनेक व्यवहार (अधिदेवने) बहुत व्यवहारयुक्त राजद्वार में रहते हैं। (यथा) जैसे (वृषण्यतः) अपने को ऐश्वर्यवान् माननेवाले (पुंसः) पुरुष का (मनः) मन (स्त्रियाम्) स्तुति क्रिया [वा अपनी पत्नी] में (निहन्यते) स्थिर रहता है। (एव) वैसे ही (अघ्न्ये) हे न मारने योग्य प्रजा ! (ते) तेरा (मनः) मनः (वत्से) सब में निवास करनेवाले परमेश्वर में (अधि) अच्छे प्रकार (नि हन्यताम्) दृढ़ होवे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर में दृढ़ भक्ति करके सदा आनन्द भोगे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यथा) येन प्रकारेण (मांसम्) अ० ४।१७।४। मन ज्ञाने−स प्रत्ययः, दीर्घश्च। मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन्त्सीदतीति वा निरु० ४।३। ज्ञानम् (यथा) (सुरा) सू० ७०। म० १। ऐश्वर्यम् (यथा) (अक्षाः) अक्षू व्याप्तिसंघातयोः−अच्। यद्वा। अशेर्देवने। उ० ३।६५। इति अशू व्याप्तौ−स प्रत्ययः। व्यवहाराः (अधिदेवने) दिवु व्यवहारे−ल्युट्। अधिकव्यवहारस्थाने राजद्वारे। (पुंसः) अ० १।८।१। पा रक्षणे−डुमसुन्। रक्षणशीलस्य पुरुषस्य (वृषण्यतः) दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। पा० ७।४।३६। इति वृषन्−क्यचि निपातितः। वृषाणम् इन्द्रम् ऐश्वर्यवन्तमात्मानमिच्छतः (स्त्रियाम्) अ० १।८।१। ष्टुञ् स्तुतौ−ड्रट्, ङीप्। स्तुतिक्रियायाम्। स्तुत्यायां पत्न्यां वा (निहन्यते) स्थाप्यते (मनः) चित्तम् (एव) एवम्। तथा (ते) तव (अघ्न्ये) अ० ३।३०।१। अघ्न्याऽहन्तव्या भवत्यघघ्नीति वा−निरु० ११।४३। हे अहन्तव्ये प्रजे (मनः) (अधि) (अधिकम्) (वत्से) अ० ३।१२।३। वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। इति वस निवासे−स। सर्वनिवासशीले परमेश्वरे (निहन्यताम्) दृढीक्रियताम् ॥

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    विषय

    अध्या और वत्स

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (मांसम्) = फल का गूदा (यथा) = जैसे (सुरा) = मेघजल और (यथा) = जैसे (अधिदेवने) = [अधि परि दीव्यन्ति कितव:] द्यूत-स्थान में (अक्षा:) = पासे प्रियतम होते हैं और (यथा) = जैसे (वृषण्यतः पुंसः) = सुरतार्थी पुरुष का (मन:) = मन स्(त्रियां निहन्यते) = स्त्री के प्रति झुकाववाला होता है (एव) = उसी प्रकार हे अध्ये कभी भी नष्ट न करने योग्य वेदवाणि! (ते) = तेरा (मन:) = मन (अधिवत्से) = [वदति] इस स्वाध्यायशील व्यक्ति पर (निहन्यताम्) = प्रह्रीभूत हो। जिस प्रकार मांस आदि प्रेमास्पद होते है, इसीप्रकार मैं वत्स तेरा प्रेमास्पद बन पाऊँ, अर्थात् मैं कभी तुझसे पृथक् न होऊँ। २. (यथा) = जैसे (हस्ती) = हाथी (हस्तिन्या: पदम्) = हथिनी के पैर को (पदेन) = अपने पैर से प्रेमपूर्वक (उद्युजे) = ऊपर उठाता है, जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री के प्रति प्रेमवाला होता है, उसी प्रकार इस वेदवाणी का मन मेरे प्रति प्रेमवाला हो। ३. (यथा) = जैसे (प्रधि:) = लोहे का हल लकड़ी के बने भीतरी चक्र पर रहता है, (यथा) = जैसे (उपधिः) = लकड़ी का चक्र अरों के द्वारा भीतरी धुरे पर रहता है, (यथा नाभ्यम्) = जैसे बीच का धुरा (अधिप्रधौ) = क्रम से अरों और लकड़ी के चक्रसहित अरों पर आ जाता है। जैसे सुरतार्थी पुरुष का मन स्त्री पर गड़ा होता है, उसी प्रकार वेदवाणी का मन मुझ [वत्स] पर गड़ा हो।

    भावार्थ

    वेदवाणी का अध्ययन ही हमारा मांस हो, यही हमारी शराब वा मेघजल हो। यही हमारी द्यूतक्रीड़ा हो, यही हमारा प्रेमालिङ्गन हो। वेदवाणी हथिनी हो तो मैं उसका हाथी बनूँ। प्रधि, उपधि, नभ्य आदि जैसे परस्पर जुड़े होते हैं उसी प्रकार मैं और वेदवाणी जुड़े हुए हों। मैं कभी वेदाध्ययन का परित्याग न काँ। वेदवाणी अन्या गौ हो, मैं उसका वत्स [बछड़ा] बनें।

    विशेष

    यह वेदवाणी का वत्स 'ब्रह्मा' बनता है-ज्ञानी बनता है। यही ज्ञानी अन्नदोष व प्रतिग्रहदोष से बचने के लिए यत्नशील होता है।

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    भाषार्थ

    (यथा) जिस प्रकार [मांसाहारी को] (मांसम्) मांस (यथा) जैसे [सुरापायी को] (सुरा) सुरा, (यथा) जैसे [कितव को] (अधिदेवने) द्यूतकर्म में (अक्षाः) पासे प्रिय होते हैं, (यथा) जैसे (वृषण्यतः पुंसः) कामाभिलाषी पुरुष का (मनः) मन (स्त्रियाम्) स्त्री में (निहन्यते) प्रह्वीभूत हो जाता है (एवा) इसी प्रकार (अघ्न्ये) हे अहननीये गौ (ते मनः) तेरा मन (वत्से अधि) वत्स में (निहन्यताम्) प्रह्वीभूत हो जाय।

    टिप्पणी

    [कितव= जुआरी। अक्षाः= dice । अघ्न्या गोनाम ( निघं० २।११), तथा पदनाम (निघं० ५।५)। पदनाम का अभिप्राय है "यौगिकनाम"। अघ्न्या द्वारा "अहन्तव्या" यह सामान्य अर्थ भी अभिप्रेत है। गौ के सम्बन्ध में यह निर्देश अनुपपन्न प्रतीत होता है कि "तेरा मन वत्स अर्थात् वछड़े के प्रति प्रह्वीभूत हो"। गौ इस निर्देश को समझ कर तदनुकूल आचरण नहीं कर सकती। गौ का निज जात वत्स के साथ स्वाभाविक प्रेम होता ही है, और गौ के प्रेम को गार्हस्थ्य पारस्परिक प्रेम में उदाहरण रूप में भी कहा है। यथा "अन्यो अन्यमभिजातमिवाघ्न्या" (अथर्व० ३।३०।१)। अत: गौ को कहना कि तू वत्स के प्रति प्रह्वीभूत हो, व्यर्थ प्रतीत होता है। मन्त्र में अघ्न्या पद, सादृश्य में, गृहिणी के लिये प्रयुक्त हुआ, लाक्षणिक है। गौ और गृहिणी दोनों ही सन्तानोत्पादन करतीं तथा सन्तानों को निज दुग्ध पिलाती हैं। अतः मन्त्र में गृहिणी के प्रति कहा है कि गृहस्थ में बच्चों के पालन-पोषण में तेरा विशेष ध्यान होना चाहिये। "मातृमान् पुरुषो वेद"। वत्स शब्द का प्रयोग प्रेम प्रदर्शक भी है जो कि मानुष सन्तान के लिये भी होता है। मन्त्र में प्रेमासक्ति के ४ दृष्टान्त दिये हैं, गृहिणी को यह दर्शाने के लिये कि बच्चों के प्रति तेरी भी प्रेमासक्ति इसी प्रकार होना चाहिये। मन्त्र में चारों दृष्टान्त यद्यपि हीनोपमारूप हैं, परन्तु प्रेमासक्ति के दर्शाने में उपयोगी हैं, सार्थक हैं]।

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    विषय

    माता के प्रति उपदेश।

    भावार्थ

    (अघ्न्ये) न मारने योग्य हे मातः ! (यथा) जिस अकार (मांसम्) मांस = उत्तम अन्न रस मनुष्यों के मनको लुभा लेता है और (यथा सुरा) जिस प्रकार सुरा = शुद्ध जल मनुष्य के मनको खैंच लेता है और (यथा अधि-देवने) जिल प्रकार संसाररूपी क्रीड़ाक्षेत्र में (अक्षाः) इन्द्रियां, मनुष्य के मन को हर लेती हैं, और जिस प्रकार (वृषण्यतः) हृष्ट पुष्ट वीर्यवान् (पुंसः) ब्रह्मचारी पुरुष का (मनः) मन (स्त्रियाम्) स्त्री में (नि-हन्यते) विवाह के लिये रत या उत्सुक हो जाता है इसी प्रकार हे (अघ्न्ये) मात ! (ते) तेरा (मनः) मन (अधि वत्से) अपने पुत्र पर (नि-हन्यताम्) लगा रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कांकायन ऋषिः। अघ्न्या देवता जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Cow

    Meaning

    As food and drink are concentrated in the pleasure garden, as dice on the gambling table, or as the mind of the exuberant lover is concentrated on his wife, so may your love, O inviolable cow, be concentrated on your calf.

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    Subject

    Aghnyi : Inviolable Cow

    Translation

    As meat is attached with wine; as dice are attached with a gambling place; as the mind of a passionate man is attached to a woman; so O inviolable one (cow), let your mind be attached to your calf (vatsa).

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    Translation

    As the pulp of fruits and as the juice of fruits attracts the mind of men as the limbs of men are set upon the enjoyment of external objects, as the desire of an enamored man is set up on a woman in the same way let the mind of this cow be firmly set upon her calf.

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    Translation

    Just as knowledge, prosperity, various dealings are associated with kingship, just as a strong man's desire is firmly set upon a dame, so let thy heart and soul, O unassailable subjects be firmly set upon the Al-pervading God!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यथा) येन प्रकारेण (मांसम्) अ० ४।१७।४। मन ज्ञाने−स प्रत्ययः, दीर्घश्च। मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन्त्सीदतीति वा निरु० ४।३। ज्ञानम् (यथा) (सुरा) सू० ७०। म० १। ऐश्वर्यम् (यथा) (अक्षाः) अक्षू व्याप्तिसंघातयोः−अच्। यद्वा। अशेर्देवने। उ० ३।६५। इति अशू व्याप्तौ−स प्रत्ययः। व्यवहाराः (अधिदेवने) दिवु व्यवहारे−ल्युट्। अधिकव्यवहारस्थाने राजद्वारे। (पुंसः) अ० १।८।१। पा रक्षणे−डुमसुन्। रक्षणशीलस्य पुरुषस्य (वृषण्यतः) दुरस्युर्द्रविणस्युर्वृषण्यति रिषण्यति। पा० ७।४।३६। इति वृषन्−क्यचि निपातितः। वृषाणम् इन्द्रम् ऐश्वर्यवन्तमात्मानमिच्छतः (स्त्रियाम्) अ० १।८।१। ष्टुञ् स्तुतौ−ड्रट्, ङीप्। स्तुतिक्रियायाम्। स्तुत्यायां पत्न्यां वा (निहन्यते) स्थाप्यते (मनः) चित्तम् (एव) एवम्। तथा (ते) तव (अघ्न्ये) अ० ३।३०।१। अघ्न्याऽहन्तव्या भवत्यघघ्नीति वा−निरु० ११।४३। हे अहन्तव्ये प्रजे (मनः) (अधि) (अधिकम्) (वत्से) अ० ३।१२।३। वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। इति वस निवासे−स। सर्वनिवासशीले परमेश्वरे (निहन्यताम्) दृढीक्रियताम् ॥

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