अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
निर॒मुं नु॑द॒ ओक॑सः स॒पत्नो॒ यः पृ॑त॒न्यति॑। नै॑र्बा॒ध्येन ह॒विषेन्द्र॑ एनं॒ परा॑शरीत् ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । अ॒मुम् । नु॒दे॒ । ओक॑स: । स॒ऽपत्न॑: । य: । पृ॒त॒न्यति॑ । नै॒:ऽबा॒ध्ये᳡न । ह॒विषा॑ । इन्द्र॑: । ए॒न॒म् । परा॑ । अ॒श॒री॒त् ॥७५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
निरमुं नुद ओकसः सपत्नो यः पृतन्यति। नैर्बाध्येन हविषेन्द्र एनं पराशरीत् ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । अमुम् । नुदे । ओकस: । सऽपत्न: । य: । पृतन्यति । नै:ऽबाध्येन । हविषा । इन्द्र: । एनम् । परा । अशरीत् ॥७५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रु के हटाने का उपदेश।
पदार्थ
मैं (अमुम्) उस [शत्रु] को (ओकसः) उसके घर से (निर्नुदे) निकालता हूँ, (यः सपत्नः) जो शत्रु (पृतन्यति) सेना चढ़ाता है। (इन्द्रः) प्रतापी राजा ने (एनम्) उसको (नैर्बाध्येन) अपने निर्विघ्न (हविषा) ग्राह्य व्यवहार से (परा अशरीत्) मार गिराया है ॥१॥
भावार्थ
सुपरीक्षित शूर वीरों के समान हम पुरुषार्थ करके अपने शत्रुओं को हटावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(निर्नुदे) अहं निर्गमयामि (अमुम्) शत्रुम् (ओकसः) तस्य गृहात् (सपत्नः) शत्रुः (यः) (पृतन्यति) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना−क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। पा० ७।४।३९। इति इत्याकारलोपः। पृतनां सेनामात्मन इच्छति (नैर्बाध्येन) ऋहलोर्ण्यत् पा० ३।१।१२४। इति निर्+बाधृ लोडने−ण्यत्। प्रज्ञादिभ्यश्च पा० ५।४।३८। इति स्वार्थे अण्। निर्बाध्येन। अबाधनीयेन (हविषा) ग्राह्येण व्यवहारेण (इन्द्रः) प्रतापी राजा (एनम्) शत्रुम् (परा) दूरे (अशरीत्) शॄ हिंसायाम्−लुङ्। अशारीत्। पराङ्मुखं हतवान् ॥
विषय
शत्रु-विद्रावण
पदार्थ
१. (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले राजन्! (अमुम्) = उसे (ओकस:) = इस राष्ट्र से (निर् नुद) = धकेल कर बाहर कर दे (यः सपत्न:) = जो शत्रु (पृतन्यति) = सेना के द्वारा हमारे राष्ट्र पर आक्रमण करता है। २. (इन्द्रः) = शत्रु-विद्रावक राजा (नैर्वाध्येन) = शत्रुओं के निर्बाधन में क्षम (हविषा) = हवि के द्वारा-प्रजा से राष्ट्र-यज्ञ में दिये जानेवाले कररूप धन के द्वारा (एनम्) = इस शत्रु को (पराशरीत्) = सुदुर विनष्ट करे। राजा कर-प्राप्त धन को अन्त: व बाह्य शत्रु से राष्ट्र-रक्षण में विनियुक्त करता है।
भावार्थ
राजा प्रजा से कर प्राप्त करता हुआ राष्ट्र का शत्रुओं से रक्षण करे।
भाषार्थ
(अमुम्) उस शत्रु को (ओकसः) निज राष्ट्रगृह से (निर् नुदे) मैं वरुण-राष्ट्रपति निकाल देता हूं, (यः) जो (सपत्न:) शत्रु कि (पृतन्यति) सेना द्वारा आक्रमण करना चाहता है। (इन्द्रः) सम्राट् (नैर्वाध्येन) नितरां बाधा डालने वाली (हविषा) युद्धयज्ञ में हविरूप सेना द्वारा (एनम्) इस सपत्न की (पराशरीत्) हिंसा करे।
टिप्पणी
[राष्ट्रपति 'वरुणराजा' निज राष्ट्र को निज ओकस् अर्थात् घर समझ कर उस की रक्षा करता है। इन्द्र है सम्राट्। सम्राट् के सम्बन्ध से राष्ट्रपति है वरुण-राजा। 'इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा' (यजु० ८।३७)।]
विषय
शत्रु को मार भगाने का उपदेश।
भावार्थ
हे वीर पुरुष ! (यः) जो (सपत्नः) हमारे राष्ट्र पर हमारे बराबर अपना प्रभुत्व दिखाने वाला शत्रु (पृतन्यति) हम पर सेना द्वारा आक्रमण करता है। (अमुम्) उसको (ओकसः) हमारे घर से, देश से (निर्-नुद) निकाल डाल। हे इन्द्र, राजन् ! (एनम्) इस शत्रु को तो (नैर्बाध्येन हविषा) निर्बाध = बाधा से रहित हवि = आज्ञा और उपाय से (पराशरीत्) मार डाल। अर्थात् उक्त प्रकार के शत्रु को मार डालने की ऐसी आज्ञा और उपाय करे जिसमें कोई बाधा न डाल सके।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सपत्नक्षयकामः कबन्ध ऋषिः। मन्त्रोक्ता इन्द्रश्च देवताः। १-२ अनुष्टुभौ, ३ षट्पदा जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Drive off the Enemy
Meaning
Indra, ruler of the dominion, drive off from the homeland the enemy that marches upon us with his forces. The ruler should drive off and destroy such enemy with the inviolable treatment that he deserves.
Subject
Indrah
Translation
I throw that man out of house, the enemy, who assails us with a horde. May the resplendent army-chief put him to rout by stopping his supplies (havisa)
Translation
O King! drive away from his house the enemy who assails us mangle him with expellent means and measures.
Translation
O heroic person, drive out of our country, the enemy who assaileth us. O king, kill him with your prompt order and expedient!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(निर्नुदे) अहं निर्गमयामि (अमुम्) शत्रुम् (ओकसः) तस्य गृहात् (सपत्नः) शत्रुः (यः) (पृतन्यति) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति पृतना−क्यच्। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। पा० ७।४।३९। इति इत्याकारलोपः। पृतनां सेनामात्मन इच्छति (नैर्बाध्येन) ऋहलोर्ण्यत् पा० ३।१।१२४। इति निर्+बाधृ लोडने−ण्यत्। प्रज्ञादिभ्यश्च पा० ५।४।३८। इति स्वार्थे अण्। निर्बाध्येन। अबाधनीयेन (हविषा) ग्राह्येण व्यवहारेण (इन्द्रः) प्रतापी राजा (एनम्) शत्रुम् (परा) दूरे (अशरीत्) शॄ हिंसायाम्−लुङ्। अशारीत्। पराङ्मुखं हतवान् ॥
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