अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सामंनस्यम्, नाना देवताः, त्रिणामा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
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यथा॑दि॒त्या वसु॑भिः सम्बभू॒वुर्म॒रुद्भि॑रु॒ग्रा अहृ॑णीयमानाः। ए॒वा त्रि॑णाम॒न्नहृ॑णीयमान इ॒माञ्जना॒न्त्संम॑नसस्कृधी॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । आ॒दि॒त्या: । वसु॑ऽभि: । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । म॒रुत्ऽभि॑: । उ॒ग्रा: । अहृ॑णीयमाना: । ए॒व । त्रि॒ऽना॒म॒न् । अहृ॑णीयमान: । इ॒मान् । जना॑न् । सम्ऽम॑नस: । कृ॒धि॒ । इ॒ह ॥७४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथादित्या वसुभिः सम्बभूवुर्मरुद्भिरुग्रा अहृणीयमानाः। एवा त्रिणामन्नहृणीयमान इमाञ्जनान्त्संमनसस्कृधीह ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । आदित्या: । वसुऽभि: । सम्ऽबभूवु: । मरुत्ऽभि: । उग्रा: । अहृणीयमाना: । एव । त्रिऽनामन् । अहृणीयमान: । इमान् । जनान् । सम्ऽमनस: । कृधि । इह ॥७४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
एकमता के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जिस प्रकार से (उग्राः) तेजस्वी (आदित्याः) प्रकाशमान विद्वान् [अथवा अदीन देव माता अदिति, पृथ्वी वा वेदवाणी के पुत्र समान मान करनेवाले] पुरुष (अहृणीयमानाः) सङ्कोच न करते हुए (वसुभिः) उत्तम गुणों और (मरुद्भिः) शत्रुनाशक वीरों के साथ (संबभूवुः) पराक्रमी हुए हैं। (एव) वैसे ही (त्रिणामन्) हे तीनों कालों और तीनों लोकों को झुकानेवाले परमेश्वर ! (अहृणीयमानः) क्रोध न करता हुआ तू (इमानि) इन सब (जनान्) जनों को (इह) यहाँ पर (संमनसः) एकमन (कृधि) कर दे ॥३॥
भावार्थ
जिस प्रकार से पूर्वज महात्मा विद्वानों से शिक्षा पाकर उपकारक हुए हैं, इसी प्रकार मनुष्य त्रिलोकीनाथ परमात्मा की भक्ति के साथ एकचित्त होकर परोपकार करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(यथा) येन प्रकारेण (आदित्याः) अ० १।९।१। आङ्+ दीपी दीप्तौ−यक्। यद्वा। अदिति−ण्य। प्रकाशमाना विद्वांसः। यद्वा। अदितेः अदीनाया देवमातुः पृथिव्या वेदवाण्या वा पुत्रवद्मानकर्तारः (वसुभिः) श्रेष्ठगुणैः (संबभूवुः) सम्+भू सामर्थ्ये। पराक्रमिणो बभूवुः (मरुद्भिः) अ० १।२०।१। शत्रुमारकैः शूरैः (उग्राः) तेजस्विनः (अहृणीयमानाः) अ० १।३५।४। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च−शानच्। असंकुचन्तः (एव) एवम्। तथा (त्रिणामन्) हे त्रयाणां लोकानां कालानां वा नामयितो वशयितः परमेश्वर (अहृणीयमानः) अक्रुध्यस्त्वम् (इमान्) अस्मदीयान् (संमनसः) समानमनस्कान्। परस्परानुरक्तचित्तान् (कृधि) कुरु (इह) अस्मिन् ग्रामनगरादौ ॥
विषय
चातुर्वर्ण्य का परस्पर मेल
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (आदित्या:) = सूर्यसमान ज्ञान-दीत आचार्य (वसुभिः) = उत्तम निवासवाले आचार्य के समीप प्रेम से रहनेवाले विद्यार्थियों के साथ (संबभूवः) = मिलकर रहते हैं तथा (उग्रा:) तेजस्वी राजा-शासक लोग (मरुद्भिः) = सैनिकों के साथ (अहृणीयमाना:) = क्रोध न करते हुए रहते हैं, (एव)-उसी प्रकार हे (त्रिणामन्) = [नामन्-form, mode, manner] कृषि, गोरक्ष व वाणिज्यरूप तीन प्रकारों से धनार्जन करनेवाले वैश्य ! तू (अहणीयमानः) = क्रोध न करता हुआ (इमान् जनान्) = इन कार्य करनेवाले श्रमिक जनों को (इह) = यहाँ, अपने व्यापार-कर्म में (संमनसः कृधि) = समान मनवाला कर, तेरे साथ प्रेम से मिलकर वे इन कार्यों में तेरे सहायक हों।
भावार्थ
आचार्य विद्यार्थियों के साथ प्रेम से रहें। राजा लोग सैनिकों के साथ एक मनवाले हों। वैश्य शूद्रों के साथ प्रेम से वर्तते हुए धनार्जन करें।
विशेष
इसप्रकार प्रेम से बर्ताव होने पर मनुष्य 'कबन्ध' बनता है-अपने में सुखों को बाँधनेवाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(यथा) जिस प्रकार (आदित्याः) आदित्यकोटि के विद्वान् (वसुभि:) वसु कोटि के विद्वानों के साथ (संबभूवु:) सांमनस्य में होते हैं, (उग्राः) उग्र बलवाले क्षत्रिय सेनाध्यक्ष (मरुद्धिः) मारने में कुशल सैनिकों के साथ (अहृणीयमानाः) विना लज्जा और संकोच के (संबभूवुः) सांमनस्य में होते हैं, (एवा) इसी प्रकार (त्रिणामन्)१ तीन लोकों को अपने प्रति नमानेवाले, झुकानेवाले, उन्हें पराजित करनेवाले हे परमेश्वर! (अहृणीयमानः) विना संकोच किये तू (इमान्) इन (जनान्) प्रजाजनों को (संमनसः) परस्पर सामनस्य वाले, तथा निज के साथ मिले मनोंवाले (इह) इस जगत् में (कृधि) कर।
टिप्पणी
[आदित्य उच्चकोटि के विद्वान हैं, और वसु निचली कोटि के विद्वान् हैं, तब भी गुरुकुलों में परसर सामनस्य में रहते हैं, प्रेमपूर्वक रहते हैं। उग्र सेनाध्यक्ष और सेनाधिपति तथा सैनिक एक-सैनिक स्थान में भी परस्पर सांमनस्य अर्थात् प्रेम में रहते हैं, इसी प्रकार नागरिक प्रजाजनों को भी परस्पर सांमनस्य अर्थात् प्रेम में रहना चाहिये, तथा उपास्य और उपासक में भी परस्पर अनुरागयुक्त होना चाहिए।] [१. तथा ओ३म् के अ, उ, म् इन तीन अक्षरों द्वारा निर्दिष्ट नामों वाले ! (माण्डू उप०; तथा सत्यार्थप्रकाश प्रथम समुल्लास)।]
विषय
एकचित्त होकर रहने का उपदेश।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (आदित्याः) आदित्य, विद्वान् लोग (वसुभिः) राष्ट्रनिवासी प्रजाओं और (मरुद्भिः) वैश्य लोगों के साथ मिलकर (उग्राः) बलवान् होकर (अहृणीयमानाः) किसी से नहीं दबते हैं उसी प्रकार हे (त्रि-णामन्) तीन प्रकार की शक्तियों से प्रजा को वश करने वाले राजन् ! तू भी (अहृणीयमानः) किसी से भी न दबता हुआ ही (इमान् जनान्) इन प्रजाजनों को (इह) इस राष्ट्र में (सं-मनसः कृधि) अपने अनुकूल एक चित्त वाले बनाये रख। कोई राजा अपनी प्रजा को अपने विपरीत रखकर उन पर शासन नहीं कर सकता। त्रि-नामन् = तीनों शक्तियों से प्रजां को वश में करने वाला। तीन शक्तियां—प्रजा, उत्साह और वीर्य अथवा अमात्य, कोश और दण्ड।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Unity and Prosperity
Meaning
Just as self-refulgent blazing stars join and go with the planets and currents of energy without reservation, similarly Trinaman, lord of three worlds and three phases of time, without anger, disapproval and reservation, make these people of the earth, equal and united at heart and in the mind and soul.
Translation
Just as formidable and irrepressible adityas (suns of twelve months) became united with the vasus (bestowers of‘wealth), 50 0 irreprssible three-named Lord (fire), may you make these peopie here of one mind.
Translation
As the rays of sun unoverpowered become powerful keeping with their side Vasus, the various worldly objects and Maruts, the airs so you, O King! possessing three Political powers, (administration, finance and law) make these subjects of concordant mind.
Translation
As strong learned persons, free from anger, with noble qualities and foe killing heroes, have become valorous, so O God, the Lord of Past, Present and Future, cause thou these people here to be one-minded!
Footnote
God is त्रिनामनः Lord of three titles; i.e., Lord of three worlds, i.e., Earth, Space and Heaven or Lord of Past, Present and Future. Pt. Jaidev Vidyalankar interprets the word as a king, who keeps the subjects under his control through three forces, i.e., Wisdom, Perseverance, strength, or Ministers, Treasure and Army.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यथा) येन प्रकारेण (आदित्याः) अ० १।९।१। आङ्+ दीपी दीप्तौ−यक्। यद्वा। अदिति−ण्य। प्रकाशमाना विद्वांसः। यद्वा। अदितेः अदीनाया देवमातुः पृथिव्या वेदवाण्या वा पुत्रवद्मानकर्तारः (वसुभिः) श्रेष्ठगुणैः (संबभूवुः) सम्+भू सामर्थ्ये। पराक्रमिणो बभूवुः (मरुद्भिः) अ० १।२०।१। शत्रुमारकैः शूरैः (उग्राः) तेजस्विनः (अहृणीयमानाः) अ० १।३५।४। हृणीङ् रोषणे लज्जायां च−शानच्। असंकुचन्तः (एव) एवम्। तथा (त्रिणामन्) हे त्रयाणां लोकानां कालानां वा नामयितो वशयितः परमेश्वर (अहृणीयमानः) अक्रुध्यस्त्वम् (इमान्) अस्मदीयान् (संमनसः) समानमनस्कान्। परस्परानुरक्तचित्तान् (कृधि) कुरु (इह) अस्मिन् ग्रामनगरादौ ॥
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