अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
0
अ॒प्सु ते॒ जन्म॑ दि॒वि ते॑ स॒धस्थं॑ समु॒द्रे अ॒न्तर्म॑हि॒मा ते॑ पृथि॒व्याम्। शुनो॑ दि॒व्यस्य॒ यन्मह॒स्तेना॑ ते ह॒विषा॑ विधेम ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्ऽसु । ते॒ । जन्म॑ । दि॒वि । ते॒ । स॒धऽस्थ॑म् । स॒मु॒द्रे । अ॒न्त: । म॒हि॒मा । ते॒ । पृ॒थि॒व्याम् । शुन॑: । दि॒व्यस्य॑ । यत् । मह॑: । तेन॑ । ते॒ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥८०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सु ते जन्म दिवि ते सधस्थं समुद्रे अन्तर्महिमा ते पृथिव्याम्। शुनो दिव्यस्य यन्महस्तेना ते हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठअप्ऽसु । ते । जन्म । दिवि । ते । सधऽस्थम् । समुद्रे । अन्त: । महिमा । ते । पृथिव्याम् । शुन: । दिव्यस्य । यत् । मह: । तेन । ते । हविषा । विधेम ॥८०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(अप्सु) प्राणों में [हे परमेश्वर] (ते) तेरा (जन्म) प्रादुर्भाव है, (दिवि) सूर्यमण्डल में (ते) तेरा (सधस्थम्) सहवास है, (समुद्रे अन्तः) अन्तरिक्ष के भीतर और (पृथिव्याम्) पृथिवी में (ते) तेरी (महिमा) महिमा है। (शुनः) व्यापक (दिव्यस्य) दिव्यस्वरूप परमेश्वर का (यत् महः) जो महत्त्व है (तेन) उसी [महत्त्व] से (ते) तेरे लिये [हे परमेश्वर !] (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा करें ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमेश्वर को परमाणु से लेकर स्थूल से स्थूल पदार्थों में साक्षात् करते हैं, वे योगी जन आत्मबल प्राप्त करके सुखी रहते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(अप्सु) प्राणेषु−दयानन्दभाष्ये यजु० ८।२५। (ते) तव। परमेश्वरस्य (जन्म) प्रादुर्भावः (दिवि) दीप्यमाने सूर्यमण्डले (ते) (सधस्थम्) सहस्थानम् (समुद्रे) अन्तरिक्षे−निघ० १।३। (अन्तः) मध्ये (महिमा) प्रभावः (ते) (पृथिव्याम्) भूमौ। अन्यद्गतम् म० १ ॥
विषय
अप्सु, दिवि, समुद्रे, पृथिव्याम्
पदार्थ
१. हे प्रभो! (अप्सु) = रेत:कणों में (ते जन्म) = तेरा प्रादुर्भाव है, अर्थात् रेत:कणों का रक्षण होने पर बुद्धि का दीपन होकर आपका दर्शन होता है। (दिवि ते सधस्थम्) = ज्ञान के प्रकाश में आपका सहस्थान है। ज्ञान का प्रकाश होने पर ज्ञानी प्रकाशमय हृदय में आपके साथ निवास करता है। यह ज्ञानी (समुद्रे पृथिव्याम् अन्त:) = समुद्र में व इस पृथिवी में (ते महिमा) = आपकी महिमा को देखता है। २. आप [दिव्य श्वा] प्रकाशमय, गतिमय व सदा से वर्धमान हैं। उन (दिव्यस्य शन:) = प्रकाशमय, वर्धमान आपका (यत् महः) = जो तेज हैं, (तेन) = उस तेज के हेतु से (ते) = आपका (हविषा विधेम) = हवि के द्वारा पूजन करें।
भावार्थ
रेत:कणों का रक्षण हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है। प्रकाशमय हृदय में जानी आपके चरणों में बैठता है। यह समुद्र व पृथिवी में आपकी महिमा को देखता है। आपके तेज को प्राप्त करने के लिए हवि के द्वारा आपका पूजन करता है।
भाषार्थ
(अप्सु) मेघस्थ जलों में (ते) तेरा (जन्म) प्रादुर्भाव होता है, (दिवि) द्युलोक में (ते) तेरी (सधस्थम्) तारा आदि के साथ स्थिति है, (ते) तेरी (महिमा) महिमा (समुद्रे अन्तः) समुद्र के अन्दर, (पृथिव्याम्) और पृथिवी में है। (शुनो दिव्यस्य आदि) व्याख्या मन्त्र (१) के सदृश।
टिप्पणी
[मन्त्र में परमेश्वर का वर्णन है यह दर्शाने के लिये कि तू ही सूर्य, चन्द्र तथा सप्तर्षिमण्डल का तथा इन द्वारा ज्ञेय काल का निर्माण करता है, तथा सर्वत्र तेरी अभिव्यक्ति तथा विद्यमानता है। जन्म= जनी प्रादुर्भावे (दिवादिः)]।
विषय
कालकञ्ज नक्षत्रों के दृष्टान्त से प्राणों का वर्णन।
भावार्थ
हे अग्ने ! (अप्सु) समस्त संसार के मूल कारणरूप निहारिकाओं में से (ते जन्म) तेरा जन्म हुआ है और (दिवि) द्युलोक में (ते) तेरी (सघस्थम्) अन्य तेरे जैसे सहस्रों प्रकाशमान पिण्डों के साथ स्थिति है। और तू (समुद्रे अन्तः) इस विशाल आकाश के भीतर है। और (ते महिमा) तेरी महिमा, विशाल कार्यक्षमता (पृथिव्याम्) पृथिवी पर प्रकट होती है। वास्तव में (दिव्यस्य) दिव्य आकाशस्थ (शुनः) श्वा = ‘कैनिस मेजर’ का (यत् महः) जो नील प्रखर तीव्र प्रकाश हैं (तेन हविषा) उस रूप से हम (ते विधेम) तेरे रूपको भी जानते हैं। यह बात वेद ने बड़े महत्व की बतलाई है। इस पृथ्वी का यह सूर्य, आकाश के अति प्रकाशवान् व्याध तारे के समान ही है। उसका भी नीला तेज ही है। वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी तथा सूर्य के निजी वातावरण के कारण सूर्य पीला दीखता है वास्तविक रूप उज्वल नील है। अध्यात्म में—अग्निस्वरूप आत्मा आपः = प्राणों के भीतर लिपटकर या जलों में जीवन ग्रहण करता है। प्राणों इन्द्रियों के बीच में रहता है, इस हृदय-समुद्र में व्यापक होकर भी पृथिवी = पार्थिव देह में अपनी चेतनामय महिमा को प्रकट करता है। दिव्य ‘श्वा’ = मुख्य प्राण की शक्ति अहंकार से हम उस आत्मा की अर्चना करते हैं। इस सूक्त का रहस्य देखो कौषीतकी उपनिषत् (अ० ३)।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमा देवता। १ भुरिग अनुष्टुप्, २ अनुष्टुप्, ३ प्रस्तार पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Heavenly Glory
Meaning
0 lord of light and bliss, you pervade and roll in the waters of space and in acts of nature and humanity, you pervade and abide in the light of the sun, your grandeur is in the depths of the ocean and in the beauty of the earth. O lord of light and bliss, the glory that is yours, with the homage of songs to that glory, we worship you.
Translation
In waters is your birth, in the sky is your abode; in the ocean and on the earth is your majesty. What greatness or mahimg (mahas) of (the) your heavenly hound is there, with that oblation we adore you
Translation
In the firmament is the birth of this moon, in heaven is the station and its splendor is in the ocean and on the earth, we offer oblation in the fire in its name with the corn which is the vigor of the heavenly dog-star.
Translation
O God, Thou art present in the breaths, stationed in heaven, seen in the space and on earth. Whatever greatness belongs to the Omnipresent, Refulgent God, urged with the same, we worship Thee with devotion, O God!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अप्सु) प्राणेषु−दयानन्दभाष्ये यजु० ८।२५। (ते) तव। परमेश्वरस्य (जन्म) प्रादुर्भावः (दिवि) दीप्यमाने सूर्यमण्डले (ते) (सधस्थम्) सहस्थानम् (समुद्रे) अन्तरिक्षे−निघ० १।३। (अन्तः) मध्ये (महिमा) प्रभावः (ते) (पृथिव्याम्) भूमौ। अन्यद्गतम् म० १ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal