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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ध्रुवः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ध्रुवोराजा सूक्त
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    ध्रु॒वोऽच्यु॑तः॒ प्र मृ॑णीहि॒ शत्रू॑न्छत्रूय॒तोऽध॑रान्पादयस्व। सर्वा॒ दिशः॒ संम॑नसः स॒ध्रीची॑र्ध्रु॒वाय॑ ते॒ समि॑तिः कल्पतामि॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ध्रु॒व: । अच्यु॑त: । प्र । मृ॒णी॒हि॒ । शत्रू॑न् । श॒त्रु॒ऽय॒त: । अध॑रान् । पा॒द॒य॒स्व॒ । सर्वा॑: । दिश॑: । सम्ऽम॑नस: । स॒ध्रीची॑: । ध्रु॒वाय॑। ते॒ । सम्ऽइ॑ति: : । क॒ल्प॒ता॒म् । इ॒ह ॥८८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ध्रुवोऽच्युतः प्र मृणीहि शत्रून्छत्रूयतोऽधरान्पादयस्व। सर्वा दिशः संमनसः सध्रीचीर्ध्रुवाय ते समितिः कल्पतामिह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ध्रुव: । अच्युत: । प्र । मृणीहि । शत्रून् । शत्रुऽयत: । अधरान् । पादयस्व । सर्वा: । दिश: । सम्ऽमनस: । सध्रीची: । ध्रुवाय। ते । सम्ऽइति: : । कल्पताम् । इह ॥८८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजतिलक यज्ञ के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे राजन् !] (ध्रुवः) दृढ़ और (अच्युतः) अचल होकर तू (शत्रून्) शत्रुओं को (प्र मृणीहि) नाश कर दे और (शत्रूयतः) शत्रुसमान आचरण करनेवाले (अधरान्) नीचों को (पादयस्व) अपने पैर से दाब दे। (इह) यहाँ पर (ध्रुवायते) तुझ निश्चलस्वभाव के लिये (सध्रीचीः) साथ-साथ रहनेवाली (सर्वाः) सब (दिशः) दिशायें (संमनसः) एकमनवाली हों, और (समितिः) यह सभा (कल्पताम्) समर्थ होवे ॥३॥

    भावार्थ

    शूरवीर प्रतापी राजा सब विरोधी दुष्कर्मियों को नाश करके सब देशों की प्रजाओं को वश में रख कर अपनी राजसभा को प्रबल बनावे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(ध्रुवः) दृढः (अच्युतः) अचलः (प्र मृणीहि) मृञ् हिंसायाम्। सर्वथा नाशय (शत्रून्) शातयितॄन्। अरीन् (शत्रूयतः) अ० ३।१।३। शत्रु-क्यच् शत्रुवदाचरतः (अधरान्) नीचजनान् (पादयस्व) प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च। गणसूत्रं सिद्धान्तकौमुद्यां चुरादिप्रकरणे। इति पाद−धात्वर्थे णिच्। स्वपादाभ्यां निक्षिप (सर्वाः) प्राच्यादयः (दिशः) दिशाः। तत्रस्थाः प्राणिन इत्यर्थः (समनसः) समानमनस्काः (सध्रीचीः) अ० ३।३०।५। सह+अञ्चु गतौ−क्विन्, सहस्य सध्रि, ङीप् पूर्वसवर्णदीर्घश्च। सध्रीच्यः। सहाञ्चनशीलाः। सहवर्तमानाः (ध्रुवाय) दृढस्वभावाय (ते) तुभ्यम् (समितिः) इयं राजसभा (कल्पताम्) समर्था भवतु (इह) अस्मिन् राज्ये ॥

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    विषय

    निरुपद्रव राष्ट्र में मिलकर चलनेवाली प्रजाएँ

    पदार्थ

    १. हे राजन्। (ध्रुवः) = इस राष्ट्र में स्थिर (अच्युत:) = मार्ग से विचलित न होनेवाला होता हुआ (शत्रुन्) = शत्रुओं को (प्रमृणीहि) = नष्ट कर डाल । (शत्रूयत:) = शत्रु की भाँति आचरण करते हुए अन्य जनों को (अधरान् पादयस्व) = नीचे गिरा दे, पददलित कर दे। २. इसप्रकार शत्रुओं के न रहने पर (सर्वाः दिश:) = सब दिशाएँ-इनमें रहनेवाली प्रजाएँ (संमनसः) = उत्तम मनवाली होती हुई (सधीची:) = मिलकर चलनेवाली हों। प्रजाओं का परस्पर विरोध न हो। (इह) = इस राष्ट्र में (ध्रुवायते) = कर्तव्य-पथ में स्थित तेरे लिए (समितिः कल्पताम्) = राष्ट्रसभा समर्थ हो, सामर्थ्य की जनक हो। यह सभा तुझे ध्रुवता से शासन करने में समर्थ करे।

    भावार्थ

    राजा राष्ट्र को शत्रुभय से रहित करे। इस निरुपद्रव राष्ट्र में सब प्रजाएँ प्रेम से मिलकर चलें। राष्ट्रसभा राजा को शासनकार्य में शक्तिसम्पन्न करे।

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    भाषार्थ

    हे सम्राट् (ध्रुवः) तू स्थिररूप और (अच्युतः) च्युतिरहित हुआ (शत्रून्) शत्रुओं को (प्रमृणोहि) मार, (शत्रुयतः) और शत्रुता चाहनेवालों को (अधरान् पादयस्व) अपने नीचे कर। (सर्वाः दिशः) सब दिशाओं के वासी प्रजाएं (संमनसः) एक मनवाली (सध्रीची:) तथा तेरे साथ मिल कर चलनेवाली हों, (ध्रुवाय ते) स्थिररूप में विद्यमान तेरे लिये (इह) इस साम्राज्य में (समितिः) राष्ट्रों के राजाओं की सभा अर्थात् राजसभा (कल्पताम्)१ सामर्थ्यसम्पन्न हो।

    टिप्पणी

    [सध्रीची:= सह अञ्चन्त्यः, गतिमत्यः। समितिः= 'यत्रौषधीः समग्मत राजानः समिताविव। विप्रः स उच्यते भिषग् रक्षोहामीवचातनः' (यजु० १२।८०)]। [१. कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)]।

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    विषय

    राजा को ध्रुव होने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू (अच्युतः) अपने कर्त्तव्यों से न चूक कर (ध्रुवः) स्थिर रहता हुआ (शत्रून्) राष्ट्र का नाश करने वाले पुरुषों को (प्र मृणीहि) खुब कुचल डाल। और (शत्रूयतः) शत्रु पुरुषों के समान आचरण करने वाले पुरुषों को (अधरान्) नीचे (पादयस्व) गिरा दे। (सर्वाः दिशः) सब दिशाएं, सब दिशाओं की निवासी प्रजाएं (सधीचीः) एक साथ रहती हुई (सं-मनसः) एक चित्त होकर रहें। (समितिः) प्रजाओं की महासभा (इह) इस राष्ट्र में (ते ध्रुवाय) तेरी स्थिरता के लिये (कल्पताम्) बनी रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। ध्रुवो देवता। १-२ अनुष्टुभौ, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spirit of Love,

    Meaning

    Steady, firm and unshaken, O Ruler, crush the enemies, put down those vile persons who strike an attitude of enmity. May the people of all quarters of the earth and space in unison and equality of mind together and the council be strong and help you to stay firmly dedicated to the steadiness and stability of the order. Life and Pranic Energy)

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    Translation

    Firm and unshaken slay your enemies. Put them down who behave like enemies. May all the regions be like-minded and accordant to you. May the war-council (assembly) enable you to remain firmly here.

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    Translation

    O King! you firm steadfast and unshaken crush your enemies, lay under your feet those enemies who strive against you, subjects in all the space boundaries living united be one-minded and let the parliament be faithful to you, who is steadfast.

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    Translation

    O King remain firm, never abandon thy duty, crush thy foemen, lay those under thy feet who behave like enemies towards thee. One-minded, true to thee be the residents of all regions; faithful to thee, the firm, be this Parliament!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(ध्रुवः) दृढः (अच्युतः) अचलः (प्र मृणीहि) मृञ् हिंसायाम्। सर्वथा नाशय (शत्रून्) शातयितॄन्। अरीन् (शत्रूयतः) अ० ३।१।३। शत्रु-क्यच् शत्रुवदाचरतः (अधरान्) नीचजनान् (पादयस्व) प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च। गणसूत्रं सिद्धान्तकौमुद्यां चुरादिप्रकरणे। इति पाद−धात्वर्थे णिच्। स्वपादाभ्यां निक्षिप (सर्वाः) प्राच्यादयः (दिशः) दिशाः। तत्रस्थाः प्राणिन इत्यर्थः (समनसः) समानमनस्काः (सध्रीचीः) अ० ३।३०।५। सह+अञ्चु गतौ−क्विन्, सहस्य सध्रि, ङीप् पूर्वसवर्णदीर्घश्च। सध्रीच्यः। सहाञ्चनशीलाः। सहवर्तमानाः (ध्रुवाय) दृढस्वभावाय (ते) तुभ्यम् (समितिः) इयं राजसभा (कल्पताम्) समर्था भवतु (इह) अस्मिन् राज्ये ॥

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