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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वाजी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाजी सूक्त
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    ज॒वस्ते॑ अर्व॒न्निहि॑तो॒ गुहा॒ यः श्ये॒ने वात॑ उ॒त योऽच॑र॒त्परी॑त्तः। तेन॒ त्वं वा॑जि॒न्बल॑वा॒न्बले॑ना॒जिं ज॑य॒ सम॑ने पारयि॒ष्णुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒व: । ते॒ । अ॒र्व॒न् । निऽहि॑त: । गुहा॑ । य: । श्ये॒ने । वाते॑ । उ॒त । य: । अच॑रत् । परी॑त्त: । तेन॑ । त्वम् । वा॒जि॒न् । बल॑ऽवान् । बले॑न । आ॒जिम् । ज॒य॒ । सम॑ने । पा॒रि॒यि॒ष्णु: ॥९२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जवस्ते अर्वन्निहितो गुहा यः श्येने वात उत योऽचरत्परीत्तः। तेन त्वं वाजिन्बलवान्बलेनाजिं जय समने पारयिष्णुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जव: । ते । अर्वन् । निऽहित: । गुहा । य: । श्येने । वाते । उत । य: । अचरत् । परीत्त: । तेन । त्वम् । वाजिन् । बलऽवान् । बलेन । आजिम् । जय । समने । पारियिष्णु: ॥९२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अर्वन्) हे विज्ञानयुक्त राजन् ! (यः) जो (जवः) वेग (ते) तेरे (गुहा=गुहायाम्) हृदय में (निहितः) धरा हुआ है, और (यः) जो (परीत्तः) सब प्रकार दिया हुआ [वेग] (श्येने) श्येन अर्थात् वाज पक्षी में (उत) और (वाते) पवन में (अचरत्) विचरा है। (वाजिन्) हे वेगयुक्त राजन् ! (त्वम्) तू (तेन) उस (बलेन) बल से (बलवान्) बलवान् और (समने) संग्राम में (पारयिष्णुः) पार लगानेवाला होकर (आजिम्) युद्ध को (जय) जीत ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् राजा आत्मिक बल बढ़ाकर शत्रुओं को शीघ्र जीते ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(जवः) वेगः (ते) तव (अर्वन्) अ० ४।९।२। ऋ गतिप्रापणयोः−वनिप्। हे शीघ्रगामिन्। विज्ञानिन् (निहितः) धाञ्−क्त। नितरां धृतः (गुहा) अ० १।८।४। गुहायाम्। हृदये (यः) जवः (श्येने) अ० ३।३। पक्षिविशेषे वाजे (वाते) वायौ (उत) अपि च (अचरत्) अवर्तत (परीत्तः) परि पूर्वाद् ददातेः−क्त। अच उपसर्गात्तः। पा० ७।४।४७। इति आकारस्य तकारः। झरो झरि सवर्णे। पा० ८।४।६५। इति तलोपः। दस्ति। पा० ६।३।१२४। इति इगन्तोपसर्गस्य दीर्घः। सर्वतो दत्तः (तेन) जवेन (त्वम्) (वाजिन्) हे वेगवन् (बलवान्) अतिबलयुक्तः (बलेन) पौरुषेण (आजिम्) अ० २।१४।६। युद्धम् (जय) अभिभावय। उत्कर्षेण प्राप्नुहि (समने) अ० ६।६।२। संग्रामे (पारयिष्णुः) अ० ५।२८।१४। पारप्रापकः ॥

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    विषय

    संग्राम-विजय

    पदार्थ

    १. हे (अर्वन्) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का हिंसन करनेवाले साधक! (यः जव:) = जो वेग (ते गुहा निहित:) = तेरे हृदयदेश में स्थापित किया गया है, (उत) = और (य:) = जो (परीत्त:) = [परिदानं रक्षणार्थ दानम्] रक्षा के लिए दिया गया [जव:] वेग श्येने-बाज में और (वाते) = वायु में (अचरत्) = गति करता है, (तेन) = उस वेग से हे (वाजिन्) = शक्तिशालिन्। (त्वम्) = तू (बलवान्) = बलवाला होता हुआ बलेन-बल से (अजिं जय) = संग्राम को जीतनेवाला हो, (समने पारयिष्णः) = तू संग्राम में पारप्रापणशील है।

    भावार्थ

    हम श्येनपक्षी के समान वेगवाले हों, वायुसम हमारा वेग हो। हृदयदेश में इस स्फूर्ति को धारण करते हुए हम बलवान् बनें और संसार-संग्राम में विजयी हो।

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    भाषार्थ

    (अर्वन्) हे अश्व ! (ते) तेरी (गुहा) हृदय गुहा में (यः जवः, निहितः) जो वेग स्थापित हुआ है, (उत) तथा (यः) जो (परोत्तः) परमेश्वर द्वारा दिया गया (श्येन) श्येन पक्षी में, (वाते) और झंझा वायू में (अचरत्) विचरता है, (वाजिन्) हे वेग वाले अश्व ! (तेन) उस (बलेन) बल द्वारा (बलवान् त्वम्) बलशाली हुआ तू (आजिम् जय) संग्राम को जीत, (समने) और संग्राम में (पारयिष्णुः) पार करने वाला हो।

    टिप्पणी

    [परीत्तः१ =परि+दा+क्त; "अव उपसर्गात्तः" (अष्टा० ७।४,४७) द्वारा तादेश। समनम् संग्रामनाम (निघं० २।१७)] [१. परीत्त:= परी= परि+त्= दा+क्तः; परिदत्तः।]

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    विषय

    प्राणरूप अश्व का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अर्वन्) गतिशील प्राण ! (ते) तेरा (जवः) वेग (यः) जो (गुहा) गुहा, भीतरी अन्तःकरण में (निहितः) रक्खा है और (यः) जो (श्येने) इथेन, ज्ञान के कर्त्ता आत्मा में (परीतः) सुरक्षित है (उत) और (यः) जो वेग (वाते) वायु में, प्राण वायु में (परीत्तः) व्याप्त होकर (अचरत्) शरीर भर में फैल जाता और इन्द्रियों में विचरण करता है, हे (वाजिन्) बलवन् ! प्राण ! (तेन) उस सब (बलेन) बल से (बलवान्) बलवान् होकर (समने) इस जीवनसंग्राम अथवा समन, इन्द्रिय-देहादि संघात में (पारयिष्णुः) सब बन्धनों को पार करता हुआ, सबको वश करता हुआ (आजिम्) चरम पद को (जय) विजय कर, प्राप्त करा। गौण रूप से अश्व अर्थात् घोड़े की तरफ़ भी लगता है—हे अश्व ! जो वेग हृदय में, बाज़ में और वायु में है उस वेगवाला होकर तू समन=संग्राम में सबको पार करता हुआ राज्यलक्ष्मी को प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘जवो यस्ते वाजिन्’ (द्वि०) श्येने परीतो अचरश्च वाते (तृ०) ‘तेन नः’ (च०) ‘वाजजिच्च भव समने च परि०’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वाजी देवता। १ जगती, २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Energy, Action, Achievement

    Meaning

    O Arvan, O man, O vibrant spirit of the human nation, the power and energy which is concentrated in your heart, vested in the eagle and in the wind, and that which vibrates elsewhere too is ultimately hidden in mystery. By that very spirit and power, O mighty Vajin, win the battle of life. You were born to win in the struggle of existence for evolution and cross the limitations.

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    Translation

    O courser, speed has been put in your feet in secrecy comparable to the speed of a hawk or of the wind. May you become strong with the strength; may your entire race be strong; may you rescue us during our struggles and strifes. (Also Yv. IX.9)

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    Translation

    Let this strong steed saving in shock of battle endowed with that might which in the form of speed lies concealed in its within, which is granted to hawk and which is in wind wandering everywhere, win the battle.

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    Translation

    O learned King, the speed that lies concealed in thy heart, speed granted to the hawk or wind that wanders-with that speed, strong king, saving in shock of battle, endowed with might, by might win thou the contest!

    Footnote

    In this verse Arvana has been translated as horse by Sāyana, Prāna by Pt. Jaideva, and King by Pt. Khem Karan Das Trivedi.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(जवः) वेगः (ते) तव (अर्वन्) अ० ४।९।२। ऋ गतिप्रापणयोः−वनिप्। हे शीघ्रगामिन्। विज्ञानिन् (निहितः) धाञ्−क्त। नितरां धृतः (गुहा) अ० १।८।४। गुहायाम्। हृदये (यः) जवः (श्येने) अ० ३।३। पक्षिविशेषे वाजे (वाते) वायौ (उत) अपि च (अचरत्) अवर्तत (परीत्तः) परि पूर्वाद् ददातेः−क्त। अच उपसर्गात्तः। पा० ७।४।४७। इति आकारस्य तकारः। झरो झरि सवर्णे। पा० ८।४।६५। इति तलोपः। दस्ति। पा० ६।३।१२४। इति इगन्तोपसर्गस्य दीर्घः। सर्वतो दत्तः (तेन) जवेन (त्वम्) (वाजिन्) हे वेगवन् (बलवान्) अतिबलयुक्तः (बलेन) पौरुषेण (आजिम्) अ० २।१४।६। युद्धम् (जय) अभिभावय। उत्कर्षेण प्राप्नुहि (समने) अ० ६।६।२। संग्रामे (पारयिष्णुः) अ० ५।२८।१४। पारप्रापकः ॥

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