अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
यस्ते॒ स्तनः॑ शश॒युर्यो म॑यो॒भूर्यः सु॑म्न॒युः सु॒हवो॒ यः सु॒दत्रः॑। येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्या॑णि॒ सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वे कः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । स्तन॑: । श॒श॒यु: । य: । म॒य॒:ऽभू: । य: । सु॒म्न॒ऽयु: । सु॒ऽहव॑: । य: । सु॒ऽदत्र॑: । येन॑ । विश्वा॑ । पुष्य॑सि । वार्या॑णि । सर॑स्वति । तम् । इ॒ह । धात॑वे । क॒: ॥११.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते स्तनः शशयुर्यो मयोभूर्यः सुम्नयुः सुहवो यः सुदत्रः। येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे कः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । स्तन: । शशयु: । य: । मय:ऽभू: । य: । सुम्नऽयु: । सुऽहव: । य: । सुऽदत्र: । येन । विश्वा । पुष्यसि । वार्याणि । सरस्वति । तम् । इह । धातवे । क: ॥११.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सरस्वती के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(सरस्वति) हे सरस्वती, विज्ञानवती स्त्री ! [वा वेदविद्या] (यः) जो (ते) तेरा (स्तनः) स्तन, दूध का आधार (शशयुः) प्रशंसा पानेवाला, (यः) जो (मयोभूः) सुख देनेवाला और (यः) जो (सुम्नयुः) उपकार करनेवाला, (सुहवः) अच्छे प्रकार ग्रहणयोग्य और (यः) जो (सुदत्रः) बड़ा दानी है। (येन) जिस स्तन से (विश्वा) सब (वार्याणि) स्वीकरणीय अङ्गों को (पुष्यसि) तू पुष्ट करती है (तम्) उस स्तन को (इह) यहाँ (धातवे) पीने के लिये (कः) तूने ठीक किया है ॥१॥
भावार्थ
जिस प्रकार विदुषी माता का दूध पीकर बालक शरीर से पुष्ट हो कान्तिमान् होता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष वेदविद्या का अमृत पान करके आत्मबल से पुष्ट होकर कीर्तिमान् होता है ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० १।१६४।४९। और यजुर्वेद, ३८।५। और श्रीमद्दयानन्दकृत संस्कारविधि, जातकर्म में बालक के स्तनपान करने के विषय में आया है ॥
टिप्पणी
१−(यः) (ते) तव (स्तनः) दुग्धाधारः (शशयुः) शशमानः, अर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। शशमानः शंशमानः-निरु० ६।८। इति श्रवणात्, शंसु स्तुतौ-अ प्रत्ययः+या गतौ-कु, मृगय्वादित्वात्-उ० १।३७। अनुस्वारलोपः सकारस्य शकारश्च छान्दसः। शंसं शंसां प्रशंसां याति यः सः (यः) (मयोभूः) सुखस्य भावयिता प्रापयिता (सुम्नयुः) छन्दसि परेच्छायां क्यच्। वा० पा० ३।१।८। सुम्न-क्यच्, उ प्रत्ययः। सुम्नं सुखं परेषामिच्छतीति यः। उपकारी (सुहवः) शोभनो हवो ग्रहणं यस्य सः (सुदत्रः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति ददातेः ष्ट्रन्, हस्वः। सुदत्रः कल्याणदानः-निरु० ६।१४। महादाता (येन) स्तनेन (विश्वा) सर्वाणि (पुष्यसि) पोषयसि (वार्याणि) वरणीयानि स्वीकरणीयानि अङ्गानि (सरस्वति) सरांसि विज्ञानानि सन्ति यस्यां सा विज्ञानवती स्त्री वेदवाणी वा, तत्सम्बुद्धौ (तम्) स्तनम् (इह) अस्मिन् कर्मणि (धातवे) धेट् पाने−तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। धातुं पानं कर्त्तुम् (कः) करोतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुकि गुणे। हल्ङ्याब्भ्यो०। पा० ६।१।६८। इति सिपो लोपः, अडभावे रूपम्। अकः। त्वं योग्यं कृतवती ॥
विषय
सरस्वती की आराधना
पदार्थ
१. हे सरस्वति ! (य:) = जो (ते स्तन:) = तुझ वेदवाणीरूप कामधेनु का स्तन-तेरे स्तन से प्राप्त ज्ञानदुग्ध (शशयुः) = [शशयान: अर्चतिकर्मा-नि०३।१४ शशमानः शंसमान:-निरुक्त ६।८] उस प्रभु के गुणों का शंसन करनेवाला है, (यः मयोभू:) = जो कल्याण का सम्पादक है, (यः सुम्नयु:) = सबके सुख की इच्छा करनेवाला है, (सुहवः) = प्रार्थनीय है, (य: सुदत्र:) = जो कल्याणदान व सुधन है। २. हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात् देवि! (येन) = जिस स्तन से तू (विश्वा वार्याणि पुष्यसि) = सब बरणीय धनों का पोषण करती है (तम्) = उस स्तन को (इह) = यहाँ-इस जीवन में (धातवे क:) = हमारे पीने के लिए कर, हम तेरे स्तन से ज्ञानदुग्ध का पान करके वास्तविक सुख पानेवाले 'शौनक' बन पाएँ।
भावार्थ
वेदवाणीरूप कामधेनु का स्तन उस ज्ञानदुग्ध को प्राप्त कराता है जो प्रभु का शंसन करनेवाला व हमारा कल्याण करनेवाला है। यह सब वरणीय धनों को प्राप्त कराता है।
भाषार्थ
(सरस्वति) हे ज्ञानसम्पन्ना पत्नी ! (ते) तेरा (यः स्तनः) जो स्तन (शशयुः) शिशु को शयन कराने वाला है (यः मयोभू) जो उसे सुखदायक है, (यः सुम्नयुः) जो उसके मन को प्रसन्न करने वाला है, (सुहवः) शिशु द्वारा सुगमता से आह्वान योग्य है, प्राप्त किया जा सकता है (सुदत्रः) जो उत्तम दुग्ध देता है, (येन) जिस द्वारा (विश्वा वार्याणि) सब वरणीय अर्थात् श्रेष्ठ गुणों को [शिशु में] (पुष्यसि) तू पुष्ट करती है, (तम्) उस स्तन को (इह) इस गृहस्थ जीवन में (धातवे) शिशुपानार्थ (कः) परिपुष्ट कर।
टिप्पणी
[सरस्वति, "सरस्= विज्ञानम्" (उणा० ४।१९०, दयानन्द)। मयः सुखनाम (निघं० ३।६)। सुम्नयुः= सु + मनस् + या (प्रापणे) + डुम् (औणादिक प्रत्यय)। धातवे= धेट् पाने (भ्वादिः) + तुमर्थे तवेत् प्रत्यय। सुदत्रः= सु + दा (दाने) + त्रैङ् (पालने), उत्तम दुग्ध देकर पालन करने [वाला]।
विषय
सरस्वती की उपासना।
भावार्थ
हे (सरस्वति) वेदमातः ! गुरो ! (यः) जो (ते) तेरा (स्तनः) मातृस्तनवत् मधुर शब्दमय उपदेश (शशयुः) अत्यन्त शान्तिदायक, अथवा अतिगूढ़ रहस्यमय है, (यः मयोभूः) जो सुख का उत्पत्ति स्थान है, (यः सुग्नयुः) जो मन को प्रसन्न करने वाला है, (यः सुहवः) जो उत्तम रीति से स्मरण करने योग्य और (सुदत्रः) उत्तम ज्ञान दाता है, (येन) जिससे तू (विश्वा वार्याणि) समस्त वरण करने योग्य उत्तम ज्ञानों को माता के समान (पुष्यसि) पुष्ट करती है। हे सरस्वति ! वेदमातः ! (तम्) उस स्तन अर्थात् शब्दमय उपदेश को (इह) इस लोक में या इस गुरुगृह में (धातवे) हमें ज्ञान-रस पान करने के लिये (कः) हमारे प्रति उपदेश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शौनक ऋषिः। ऋग्वेदे दीर्घतमा ऋषिः। सरस्वती देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Life Mother Sarasvati
Meaning
O mother Sarasvati, that swelling treasure trove of your affectionate nourishment, abundant, refreshing, gracious, spontaneous and generous by which you fulfill all the cherished desires of your children, pray open, extend, and let it flow to us.
Subject
Sarasvati
Translation
O divine mother (Sarvasvati or speech), that ever-full breast (with inexhaustive vocabulary of yours), which lies hidden, which is the source of delight, bestower of joy, easy to invoke and liberal in giving, with which you nourish all the desirable ones, that may you lay open now for our Sustenance. (Also Rg. X.164.49)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.11.1AS PER THE BOOK
Translation
O mother! you rightly for my sucking give your that breast which is praise-worthy, which is pleasure-giving, which is beneficent, which is good to admire, which is free-giver and by which you nurture the good qualities of the child.
Translation
O Vedic knowledge, that sweet sermon ot thine is the bestower ot peace, the source of joy, the supplier of mental satisfaction, worthy of remembrance, and the giver of wisdom. Wherewith thou feedest all sorts of choice sciences. O Vedic knowledge, deliver that sermon unto us in this house of the Guru (preceptor) to derive knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) (ते) तव (स्तनः) दुग्धाधारः (शशयुः) शशमानः, अर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। शशमानः शंशमानः-निरु० ६।८। इति श्रवणात्, शंसु स्तुतौ-अ प्रत्ययः+या गतौ-कु, मृगय्वादित्वात्-उ० १।३७। अनुस्वारलोपः सकारस्य शकारश्च छान्दसः। शंसं शंसां प्रशंसां याति यः सः (यः) (मयोभूः) सुखस्य भावयिता प्रापयिता (सुम्नयुः) छन्दसि परेच्छायां क्यच्। वा० पा० ३।१।८। सुम्न-क्यच्, उ प्रत्ययः। सुम्नं सुखं परेषामिच्छतीति यः। उपकारी (सुहवः) शोभनो हवो ग्रहणं यस्य सः (सुदत्रः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति ददातेः ष्ट्रन्, हस्वः। सुदत्रः कल्याणदानः-निरु० ६।१४। महादाता (येन) स्तनेन (विश्वा) सर्वाणि (पुष्यसि) पोषयसि (वार्याणि) वरणीयानि स्वीकरणीयानि अङ्गानि (सरस्वति) सरांसि विज्ञानानि सन्ति यस्यां सा विज्ञानवती स्त्री वेदवाणी वा, तत्सम्बुद्धौ (तम्) स्तनम् (इह) अस्मिन् कर्मणि (धातवे) धेट् पाने−तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। धातुं पानं कर्त्तुम् (कः) करोतेर्लुङि। मन्त्रे घसह्वर०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुकि गुणे। हल्ङ्याब्भ्यो०। पा० ६।१।६८। इति सिपो लोपः, अडभावे रूपम्। अकः। त्वं योग्यं कृतवती ॥
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