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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उपरिबभ्रवः देवता - पूषा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वस्तिदा पूषा सूक्त
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    परि॑ पू॒षा प॒रस्ता॒द्धस्तं॑ दधातु॒ दक्षि॑णम्। पुन॑र्नो न॒ष्टमाज॑तु॒ सं न॒ष्टेन॑ गमेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । पू॒षा । प॒रस्ता॑त् । हस्त॑म् । द॒धा॒तु॒ । दक्ष‍ि॑णम् । पुन॑: । न॒: । न॒ष्टम् । आ । अ॒जतु॒ । सम् । न॒ष्टेन॑ । ग॒मे॒म॒हि॒ ॥१०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि पूषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम्। पुनर्नो नष्टमाजतु सं नष्टेन गमेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । पूषा । परस्तात् । हस्तम् । दधातु । दक्ष‍िणम् । पुन: । न: । नष्टम् । आ । अजतु । सम् । नष्टेन । गमेमहि ॥१०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (पूषा) पूषा, पोषण करनेवाला परमात्मा (दक्षिणम्) अपना दाहिना (हस्तम्) हाथ (परस्तात्) पीछे से [हमारे पुरुषार्थानुकूल] (परि) सब ओर (दधातु) धारण करे। वह (नः) हमें (नष्टम्) नष्ट बल को (पुनः) फिर (आ अजतु) लावे, [पाये हुए] (नष्टेन) नष्ट बल के साथ (सम् गमेमहि) हम मिले रहें ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे मनुष्य बायें हाथ की अपेक्षा दाहिने हाथ से अधिक उपकार करता है, वैसे ही परमात्मा अपनी पूरण कृपा हम पर रक्खे, जिससे हम प्रयत्नपूर्वक अपने खोये बल [प्रारब्ध फल] को फिर पाकर रख सकें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-म० ६।५४।१० ॥

    टिप्पणी

    ४−(परि) परितः (पूषा) पोषकः परमात्मा (परस्तात्) उत्तरे काले (हस्तम्) कृपाहस्तम् (दधातु) धारयतु (दक्षिणम्) (पुनः) (नः) अस्मभ्यम् (नष्टम्) ध्वस्तं बलम् (आ अजतु) अज गतिक्षेपणयोः। आनयतु (नष्टेन) अदृष्टबलेन प्रारब्धफलेन (सं गमेमहि) संगच्छेमहि ॥

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    विषय

    दक्षिण हाथ

    पदार्थ

    १. (पूषा) = यह पोषक प्रभु (परस्तात्) = अति दूर देश से भी धन के आदान के लिए हमें (दक्षिणं हस्तं दधातु) = कार्यकुशल हाथ प्राप्त कराएँ। हमें इसप्रकार शक्ति दें कि हम दूर-से-दूर देशों से भी धनार्जन करने में समर्थ हों। २. (न:) = हमें (नष्टम्) = नष्ट हुआ धन (पुनः आजतु) = पुनः प्राप्त हो और (नष्टेन) = उस नष्ट धन से हम (संगमेमहि)= फिर से संगत हो पाएँ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हमें कार्यकुशल हाथ प्राप्त हों और हम नष्ट धनों को भी पुनः प्राप्त कर सकें।

    कुशलता से कार्य करता हुआ यह व्यक्ति 'शौनक' बनता है [शुनम् इति सुखनाम] सुखी जीवनवाला होता है। यह शौनक ही अगले तीन सूक्तों का ऋषि है।

     

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    भाषार्थ

    (परस्तात्) परात्पर वर्तमान (पूषा) पोषक परमेश्वर, (दक्षिणम्; हस्तम्) वृद्धिकारक हमारे दाहिने हाथ को (परिदधातु) परिपुष्ट करे। ताकि (नष्टम्) नष्ट हुआ धन (नः) हमें (पुनः) फिर (आ अजतु) प्राप्त हो, और (नष्टेन) नष्ट हुए धन के साथ (संगमेमहि) हम संग करें।

    टिप्पणी

    [नष्ट हुए धन की पुनः प्राप्ति के लिये दाहिने हाथ में शक्ति चाहिये, ताकि परिपुष्ट हाथ द्वारा परिश्रम करके हम पुनः धन प्राप्त कर सकें। धन से अभिप्राय है "कृषिधन", जिसका विनाश अवर्षा, अत्युष्णता और विद्युत्पात द्वारा हो जाता है। (सूक्त १२ मन्त्र १)। दक्षिणम्= दक्ष वृद्धौ (भ्वादिः)। परिदधातु= परि + डुधाञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। परस्तात्= "पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परागतिः” (कठ० उप० १।३।११)।

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    विषय

    उत्तम मार्गदर्शक, पति और पालक से प्रार्थना।

    भावार्थ

    (पूषा) परिपोषक परमात्मा (परस्तात्) दूर दूर तक (दक्षिणम्) कार्यकुशल या दायें हाथ के समान बलवान् (हस्तं) अपना हाथ अर्थात् सहारा (परिदधातु) हमें दे। जिससे हम सब ऐश्वर्य प्राप्त करें और (नः) हमारा (नष्टं) विनष्ट पदार्थ (नः) हमें (पुनः) फिर (आजतु) प्राप्त हो। हम (नष्टेन) विनष्ट पदार्थ से पुनः (सं गमेमहि) संगति लाभ करें। पूषादेवताक मन्त्रों का अर्थ हमने परमात्म-परक किया है। परन्तु पूषा विशां विट्-पतिः॥ तै० २। ५। ७४।। पूषा वै पथीनामधिपतिः। श० १३। ४। १। १४॥ (पूषा भगं भगपतिः। श० ११। ४। ३। १५॥ पथ्या पूष्णः पत्नी गो० उ० २। ९॥ योषा वै सरस्वती वृषा पूषा॥ श० २। ५। १। ११॥ पूषा भागदुधः अशनं पाणिभ्यामुपनिधाता। श०। ११। १। २। १७ इत्यादि प्रमाणों से राजा, राष्ट्र के सब मार्गों पर चुंगी संग्रह करनेवाला, राष्ट्र का अधिकारी, खज़ानची, अन्नपति, गृहपति और राष्ट्र के कर का संग्रह करनेवाला अध्यक्ष ये भी ‘पूषा’ कहाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उपरिबभ्रव ऋषिः। ऋग्वेदे देवश्रवा यामायन ऋषिः। पूषा देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। ३ त्रिपदा आर्षी गायत्री। ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Worship of Divinity

    Meaning

    May Pusha, lord all-protective, give us the umbrella of his generous right hand from above, far and near. May our lost strength come back to us. May we reclaim and live by the strength we sometime lost earlier.

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    Translation

    May the nourisher stretch His right hand to restrain our cattle from-going astray; may He bring again to us what has bee: lost. May we be united with what has been lost. (Also Rg. VI.54.10).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.10.4AS PER THE BOOK

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    Translation

    May Pushan, the Guardian of the universe stretch His dakshinamhastam, the powerful protection upon us from all sides and distance, let him drive back whatever of ours is lost and let us be united with whatever Of ours is lost.

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    Translation

    From out the distance, far and wide, may God stretch His right hand support to us. Let Him restore our lost strength. Let us regain our lost strength.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(परि) परितः (पूषा) पोषकः परमात्मा (परस्तात्) उत्तरे काले (हस्तम्) कृपाहस्तम् (दधातु) धारयतु (दक्षिणम्) (पुनः) (नः) अस्मभ्यम् (नष्टम्) ध्वस्तं बलम् (आ अजतु) अज गतिक्षेपणयोः। आनयतु (नष्टेन) अदृष्टबलेन प्रारब्धफलेन (सं गमेमहि) संगच्छेमहि ॥

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