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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 108/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    यो नः॑ सु॒प्ताञ्जाग्र॑तो वाभि॒दासा॒त्तिष्ठ॑तो वा॒ चर॑तो जातवेदः। वै॑श्वान॒रेण॑ स॒युजा॑ स॒जोषा॒स्तान्प्र॒तीचो॒ निर्द॑ह जातवेदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒: । सु॒प्तान् । जाग्र॑त: । वा॒ । अ॒भि॒ऽदासा॑त् । तिष्ठ॑त: । वा॒ । चर॑त: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । वै॒श्वा॒न॒रेण॑ । स॒ऽयुजा॑ । स॒ऽजोषा॑: । तान् । प्र॒तीच॑: । नि: । द॒ह॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ॥११३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नः सुप्ताञ्जाग्रतो वाभिदासात्तिष्ठतो वा चरतो जातवेदः। वैश्वानरेण सयुजा सजोषास्तान्प्रतीचो निर्दह जातवेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न: । सुप्तान् । जाग्रत: । वा । अभिऽदासात् । तिष्ठत: । वा । चरत: । जातऽवेद: । वैश्वानरेण । सऽयुजा । सऽजोषा: । तान् । प्रतीच: । नि: । दह । जातऽवेद: ॥११३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 108; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे प्रसिद्ध ज्ञानवाले राजन् ! (यः) जो कोई पुरुष (सुप्तान्) सोते हुए, (वा) वा (जाग्रतः) जागते हुए, (तिष्ठतः) ठहरे हुए, (वा) वा (चरतः) चलते हुए (नः) हमको (अभिदासात्) सतावे। (जातवेदः) हे प्रसिद्ध धनवाले राजन् ! (वैश्वानरेण) सब नरों के हितकारी (सयुजा) समानमित्र [परमेश्वर] के साथ (सजोषाः) प्रीतिवाला तू (प्रतीचः) चढ़ाई करनेवाले (तान्) उनको (निः) निरन्तर (दह) भस्म करदे ॥२॥

    भावार्थ

    राजा परमेश्वर के सहाय से आत्मबल बढ़ाकर सब डाकू उचक्कों का नाश करके प्रजा की रक्षा करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (सुप्तान्) निद्राणान् (जाग्रतः) अ० ६।९६।३। प्रबुद्ध्यमानान् (वा) (अभिदासात्) अ० ५।६।१०। अभितो दास्नुयात्। हिंस्यात् (तिष्ठतः) स्थितियुक्तान् (वा) (चरतः) चलनशीलान् (जातवेदः) अ० १।७।२। हे प्रसिद्धज्ञान (वैश्वानरेण) अ० १।१०।४। सर्वनरहितेन (सयुजा) समानमित्रेण। परमेश्वरेण (सजोषाः) सहप्रीतिः (तान्) शत्रून् (प्रतीचः) अ० १।२८।२। प्रतिकूलगतीन् (निः) निरन्तरम् (दह) भस्मसात् कुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन ॥

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    विषय

    वैश्वानरेण सयुजा

    पदार्थ

    १. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (य:) = जो (न:) = हम (सुप्तान) = सोते हुओं को, (जाग्रत:) = जागते हुओं को, (तिष्ठत: चरतः वा) = खड़े हुओं को या चलते हुओं को (अभिदासात्) = उपक्षित [विनष्ट] करे, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (वैश्वानरेण सयुजा) = जाठराग्रिरूप सहाय से [साथी से] मिलकर (सजोषा:) = समानरूप से दुष्टदमनरूप कार्य का [जुष् सेवने] सेवन करनेवाले आप (प्रतीच:) = हमारे विनाश के लिए हमारी ओर आते हुए (तान्) = उन शत्रुओं को (निर्दह) = नितरां दग्ध कर दीजिए। २. इन औरों का उपक्षय करनेवालों की जाठराग्नि ठीक न रहे और इसप्रकार रोगाक्रान्त होकर वे स्वयं ही विनष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ

    औरों का उपनय करनेवाले लोग प्रभ से इसप्रकार दण्डित होते हैं कि इनकी जाठराग्नि विकृत होकर इन्हें रोगी बनाकर विनष्ट कर देती है।

    पापवृत्ति से दूर होकर, धर्म में स्थिरवृत्तिवाला [बद स्थैर्य] 'बादरायणि' अगले सूक्त का -

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे प्रज्ञानी प्रधानमन्त्रि ! (यः) जो शत्रु (नः) हम (सुप्तान्) सोए हुओं, (जाग्रतः वा) या जागते हुओं, (तिष्ठतः) बैठे हुओं, (वा) या (चरतः) चलते हुआों को (अभिदासात्) उपक्षीण करे, विनष्ट करे, (तान्) उन (प्रतीचः) वापिस लौटते हुओं को (जातवेदः) हे प्रज्ञानी प्रधानमन्त्रि ! (सयुजा) सहयोगी (वैश्वानरेण) प्राकृतिक अर्थात् भौमाग्नि (सजोषाः) के साथ प्रीति रखने वाला तू (निर्दह) निःशेषेण दग्ध कर।

    टिप्पणी

    [वैश्वानरेण= भौमाग्निना। यथा "अयमेवाग्निर्वैश्वानर इति शाकपूर्णिः। विश्वानरावेते उत्तरे ज्योतिषी, वैश्वानरोऽयं यत् ताभ्यां जायते" (निरुक्त ७।६।२३)]।

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    विषय

    हत्याकारी अपराधियों को दण्ड।

    भावार्थ

    (यः) जो मनुष्य या प्राणी (नः) हमें (सुप्तान्) सोते हुओं को या (जाग्रतः) जागते हुओं को (तिष्ठतः) खडे हुओं को या (चरतः) चलते हुओं को (अभि-दासात्) नष्ट करे या हम पर आक्रमण करे, तो हे (जात-वेदः) प्रज्ञावान् विद्वान् न्यायाधीश ! आप (वैश्वानरेण) समस्त प्रजाओं के नेता या उनके हितकारी राजा को (स-युजा) साथ लेकर (स-जोषाः) प्रजा के प्रति प्रेमभाव से उन (प्रतीचः) प्रतिकूल चलने वालों को (निःदह) सर्वथा अग्नि में भस्म कर डाल, उनका विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Elimination of the Evil

    Meaning

    O Jataveda Agni, whatever the force that assaults us, whether we are sleeping or awake, whether we are on the move or at rest, O Jataveda, with universal friend and ally mutually interested, counter and burn them out.

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    Translation

    O knower of all, whoever assails us asleep or awake, while Standing or moving, may you, in accord with and aided by the benefactor of all men, consume them in retaliation, O knower of all.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.113.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    O learned ruler! O master of the Vedic speech; he who amongst us oppresses and tortures the people waking or sleeping, standing or moving be burnt by you with the means of fire and thus, accordant you burn the enemies besieging us.

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    Translation

    Whoso oppresseth us, O King, asleep or waking, standing still or moving; accordant with God, (the Lover of all) thy comrade, O King meet those foes and consume them.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) शत्रुः (नः) अस्मान् (सुप्तान्) निद्राणान् (जाग्रतः) अ० ६।९६।३। प्रबुद्ध्यमानान् (वा) (अभिदासात्) अ० ५।६।१०। अभितो दास्नुयात्। हिंस्यात् (तिष्ठतः) स्थितियुक्तान् (वा) (चरतः) चलनशीलान् (जातवेदः) अ० १।७।२। हे प्रसिद्धज्ञान (वैश्वानरेण) अ० १।१०।४। सर्वनरहितेन (सयुजा) समानमित्रेण। परमेश्वरेण (सजोषाः) सहप्रीतिः (तान्) शत्रून् (प्रतीचः) अ० १।२८।२। प्रतिकूलगतीन् (निः) निरन्तरम् (दह) भस्मसात् कुरु (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन ॥

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