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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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    य॒ज्ञो ब॑भूव॒ स आ ब॑भूव॒ स प्र ज॑ज्ञे॒ स उ॑ वावृधे॒ पुनः॑। स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव॒ सो अ॒स्मासु॒ द्रवि॑ण॒मा द॑धातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञ: । ब॒भू॒व॒ । स: । आ । ब॒भू॒व॒ । स: । प्र । ज॒ज्ञे॒ । स: । ऊं॒ इति॑ । व॒वृ॒धे॒ । पुन॑: ।स: । दे॒वाना॑म् । अधि॑ऽपति: । ब॒भू॒व॒ । स: । अ॒स्मासु॑ । द्रवि॑णम् । आ । द॒धा॒तु॒ ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो बभूव स आ बभूव स प्र जज्ञे स उ वावृधे पुनः। स देवानामधिपतिर्बभूव सो अस्मासु द्रविणमा दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञ: । बभूव । स: । आ । बभूव । स: । प्र । जज्ञे । स: । ऊं इति । ववृधे । पुन: ।स: । देवानाम् । अधिऽपति: । बभूव । स: । अस्मासु । द्रविणम् । आ । दधातु ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह परमेश्वर (यज्ञः) पूजनीय (बभूव) हुआ और (आ) सब ओर (बभूव) व्यापक हुआ, (सः) वह (प्र) अच्छे प्रकार (जज्ञे) जाना गया, (सः उ) वही (पुनः) निश्चय करके (ववृधे) बढ़ा। (सः) वह (देवानाम्) दिव्य वायु सूर्य आदि लोकों का (अधिपतिः) अधिपति (बभूव) हुआ, (सः) वही (अस्मासु) हमारे बीच (द्रविणम्) प्रापणीय बल (आ) सब ओर से (दधातु) धारण करे ॥२॥

    भावार्थ

    सर्वपूजनीय, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सदा प्रवृद्ध परमेश्वर के उपासक लोग आत्मिक बल बढ़ाकर मोक्षसुख पाते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यज्ञः) पूजनीयः संगन्तव्यः (बभूव) (सः) परमेश्वरः (आ) सर्वतः (बभूव) भू प्राप्तौ। व्याप (प्र) प्रकर्षेण (जज्ञे) ज्ञा अवबोधने कर्मणि लिट्। ज्ञातः प्रसिद्धो बभूव (उ) एव (ववृधे) वृद्धिं प्राप (पुनः) अवधारणे (सः) (देवानाम्) दिव्यानां वायुसूर्यादिलोकानाम् (अधिपतिः) अधिकं पालयिता (अस्मासु) उपासकेषु (द्रविणम्) अ० २।२९।३। प्रापणीयं बलम्-निघ० २।९। (आ) समन्तात् (दधातु) धारयतु ॥

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    विषय

    यज्ञः बभूव, स आबभूव

    पदार्थ

    १. यज्ञो (बभूव) = वह पूजनीय प्रभु सदा से है, (स आ बभूव) = वह सर्वत्र-चारों ओर विद्यमान है, (सः प्रजज्ञे) = वह इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रादुर्भूत करता है, (स: उ वावृधे पुन:) = फिर वही इस ब्रह्माण्ड का वर्धन करता है। २. (स:) = वे प्रभु ही (देवानाम् अधिपतिः बभूव) = सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि आदि सब देवों के अधिपति हैं। (सः) = वे प्रभु ही (अस्मासु) = हममें (द्रविणम्) = आदधातु धन का धारण करें। प्रभु यज्ञ हैं-देनेवाले हैं। वे हमें जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक धन दें।

    भावार्थ

    वे यज्ञरूप प्रभु सदा से हैं-सर्वत्र हैं। वे इस संसार को प्रादर्भत करते हैं, प्रलयानन्तर फिर इसका वर्धन करते हैं। वे सब देवों के स्वामी है, हमारे लिए भी आवश्यक धन देते हैं।

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    भाषार्थ

    (यज्ञः) यजनीय परमेश्वर (बभूव) सत्तावान् है, (सः) वह (आ बभूव) सर्वत्र सत्तावान् हुआ है, (सः) वह (प्र जज्ञे) प्रज्ञानी है, (सः उ) वह ही (पुनः) बार-बार सृष्टि में (वावृधे) गुण-कर्मों की दृष्टि से वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। (सः) वह (देवानाम्) सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादि देवों का (अधिपतिः बभूव) स्वामी हुआ है, (सः) वह (अस्मासु) हम में (द्रविणम्) आध्यात्मिक तथा आधिदैविक धन (आ दधातु) स्थापित करे।

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    विषय

    आत्मज्ञान का उपदेश।

    भावार्थ

    (यज्ञः) वह सब का परम पूजनीय सर्व सुखप्रद परमेश्वर ‘यज्ञ’, ही (बभूव) सदा काल से रहा है। (सः आ बभूव) वह सर्वत्र व्यापक और समर्थ है। इसलिये (सः प्र जज्ञे) वह समस्त सृष्टि को उत्पन्न करता है। (सः उ) वह ही (पुनः) बार बार (वावृधे) प्रलय कर इसका विनाश करता है। (सः) वह (देवानां) प्रकृति, महत् और अहंकार, पंचभूतादि वैकारिक दिव्य पदार्थों का (अधिपतिः) अध्यक्ष, स्वामी, उनका मालिक और पालक (बभूव) है, (सः) वह (अस्मासु) हम में (द्रविणम्) ज्ञान और आत्मसामर्थ्य को (आ दधातु) धारण करावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता। त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    The cosmic yajna starts and proceeds. The divine yajamana manifests, he proceeds further, his manifestation grows higher and higher again and again. Thus Brahma, in the world of existence, becomes the Supreme ordainer and sustainer of the Devas such as sun and moon. May the Lord bless us also with spiritual, moral and social wealth and excellence of high order.

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    Translation

    The Lord of creatures (sacrifice) came into being. He came to be here all around. He was born; and again He grew in vigour. He became the over-lord of the bounties of Nature. May He bestow riches on us in abundance.

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    Translation

    This yajna comes into existence and his disseminate itself throughout, this is observed into action and this thus, grows from Strength to strength, this becomes the predominant factor of the excellent qualities and let this yajna bestow Knowledge and weal upon us.

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    Translation

    God is worthy of worship. He is All-pervading. He creates the whole universe. He dissolves it again and again. He is the Lord of all divine objects. May He bestow on us wisdom and spiritual strength.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यज्ञः) पूजनीयः संगन्तव्यः (बभूव) (सः) परमेश्वरः (आ) सर्वतः (बभूव) भू प्राप्तौ। व्याप (प्र) प्रकर्षेण (जज्ञे) ज्ञा अवबोधने कर्मणि लिट्। ज्ञातः प्रसिद्धो बभूव (उ) एव (ववृधे) वृद्धिं प्राप (पुनः) अवधारणे (सः) (देवानाम्) दिव्यानां वायुसूर्यादिलोकानाम् (अधिपतिः) अधिकं पालयिता (अस्मासु) उपासकेषु (द्रविणम्) अ० २।२९।३। प्रापणीयं बलम्-निघ० २।९। (आ) समन्तात् (दधातु) धारयतु ॥

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