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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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    यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ य॒ज्ञं दे॒वा अत॑न्वत। अ॑स्ति॒ नु तस्मा॒दोजी॑यो॒ यद्वि॒हव्ये॑नेजि॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पुरु॑षेण । ह॒विषा॑ । य॒ज्ञम् ।दे॒वा: । अत॑न्वत । अस्ति॑ । नु । तस्मा॑त् । ओजी॑य: । यत् । वि॒ऽहव्ये॑न । ई॒जि॒रे ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत। अस्ति नु तस्मादोजीयो यद्विहव्येनेजिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । पुरुषेण । हविषा । यज्ञम् ।देवा: । अतन्वत । अस्ति । नु । तस्मात् । ओजीय: । यत् । विऽहव्येन । ईजिरे ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (देवाः) विद्वानों ने (पुरुषेण) अपने अग्रगामी आत्मा के साथ (हविषा) देने और लेने योग्य व्यवहार से (यज्ञम्) पूजनीय ब्रह्म को (अतन्वत) फैलाया। वह ब्रह्म (नु) अव (तस्मात्) उस [आत्मा] से (ओजीयः) अधिक बलवान् (अस्ति=आसीत्) हुआ, (यत्) जिस [ब्रह्म] की उन्होंने (विहव्येन) विशेष देने योग्य व्यवहार से (ईजिरे) पूजा था ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् योगी महात्माओं ने यह साक्षात् किया है कि इस जीवात्मा से अधिक ओजस्वी शक्तिविशेष परमेश्वर सब ब्रह्माण्ड को चला रहा है ॥४॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऋग्वेद में है-म० १०।६६।७। और-यजु० ३१।१४।

    टिप्पणी

    ४−(यत्) यदा (पुरुषेण) अ० १।१६।४। पुर अग्रगतौ-कुषन्। अग्रगामिना स्वात्मना (हविषा) दातव्येन ग्राह्येण च कर्मणा (देवाः) विद्वांसः (अतन्वत) विस्तारितवन्तः (अस्ति) आसीत् तद्ब्रह्म (नु) अवधारणे। इदानीम् (तस्मात्) पुरुषात् (ओजीयः) ओजस्वी-ईयसुन्, विनो लुक्। बलवत्तरम् (यत्) ब्रह्म (विहव्येन) विविधं दातव्येन व्यवहारेण (ईजिरे) यजेर्लिट्। पूजितवन्तः ॥

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    विषय

    पुरुषमेध

    पदार्थ

    १. (यत्) = यह जो (पुरुषेण हविषा) = पुरुषरूप हवि के द्वारा, अर्थात् प्राजापत्य यज्ञ में अपनी ही आहुति दे देने के द्वारा (देवा:) = देवजन (यज्ञं अतन्वत) = यज्ञ का विस्तार करते हैं तो (अस्ति नु तस्माद् ओजीयः) = उससे भी अधिक शक्तिशाली क्या कोई यज्ञ हो सकता है? (यत्) = जो (विहव्येन) = विशिष्ट हव्य के द्वारा-पुरुषरूप हवि के द्वारा (इंजिरे) = उस प्रभु की उपासना करते हैं। २. वस्तुतः ('सर्वभूतहिते रतः') = सब प्राणियों के हित में लगे हुए पुरुष ही प्रभु के सच्चे उपासक हैं। यही पुरुषमेध यज्ञ है। इससे उत्तम हव्य और कोई हो ही क्या सकता है? यही ('विहव्येन यजन') = है, यही ओजस्वितम है।

    भावार्थ

    हम अपने को ही प्राजापत्य यज्ञ की आहुति बनाएँ, अर्थात् लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहें। यही प्रभु का ओजस्वितम पूजन है।

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    भाषार्थ

    (देवा:) दिव्य उपासक (यत्) जो कि (पुरुषेण) ब्रह्माण्डपुरी में शयन करने वाले या उस में निवास करने वाले परमेश्वररूपी (हविषा) हवि द्वारा (यज्ञम्) ध्यान यज्ञ का (अतन्वत) विस्तार करते हैं, (तस्मात्) इस कारण (नु) निश्चय से (ओजीयः) ध्यानयज्ञ अधिक ओजस्वी (अस्ति) है, (यत्) यतः (विहव्येन) द्रव्ययज्ञ के बिना (ईजिरे) वे यज्ञ करते हैं।

    टिप्पणी

    [पुरुषेण = पुरि शेते, वसति वा। मन्त्र में द्रव्ययज्ञ की अपेक्षा से ध्यान-यज्ञ को अधिक ओज वाला कहा है। यथा–“श्रेयान् द्रव्यमयात् यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परंतप" (गीता ४।३३) तथा (यजु० ३१/१६)। अतन्वत, ईजिरे प्रयोग वर्तमानार्थक हैं, यथा “छन्दसि लुङ् लङ् लिटः" (अष्टा० ३।४।६) द्वारा लुङ्, आदि का प्रयोग वर्तमान में भी होता है]।

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    विषय

    आत्मज्ञान का उपदेश।

    भावार्थ

    (यद्) क्योंकि (देवाः) आत्मज्ञान से प्रकाशमान पुरुष (पुरुषेण) इस देह-पुरी में निवास करने वाले आत्मा की (हविषा) हवि देकर अर्थात् परमात्मा के प्रति इसे समर्पित कर (यज्ञं) उस परम पूजनीय परमेश्वर की उपासना (भतन्वत) करते हैं और (यत्) क्योंकि (विहव्येन) विशेष स्तुति, प्रार्थनोपासना द्वारा या बाह्य चरु आदि से रहित केवल समाधि या ज्ञानाभ्यास द्वारा (ईजिरे) उसकी संगति करते हैं. (तस्मात्) इसलिए ही यह अध्यात्म यज्ञ (नु) निश्चय से (ओजीयः अस्ति) सबसे अधिक ओजस्वी बलशाली होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता। त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    When the divine sages perform and extend the yajna with oblations of self-surrender in communion with the Purusha, Supreme Brahma, thereby the yajna grows higher and more powerful since they perform the yajna with the exceptional offer of self-sacrifice through total surrender.

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    Translation

    What sacrifice the enlightened ones perform with the human offerings - even more potent than that is the sacrifice, which is performed with out any (material) offerings (vihavyena).-

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    Translation

    Since the enlightened persons inspired by Purusha, the universal spirit project the yajna with offer of oblations and since it is performed with an extra-ordinary knowledge therefore it is highly powerful and effectual.

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    Translation

    When the learned perform, meditating upon the Adorable God, the sacrifice of mental worship, and when they hold communion with Him through yoga alone, that sacrifice (yajna) of theirs is therefore certainly superior to all other forms of sacrifice.

    Footnote

    The Yajna performed through the sacrifice of soul and mind is superior to the Yajna performed through fuel, butter and oblations of corn.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यत्) यदा (पुरुषेण) अ० १।१६।४। पुर अग्रगतौ-कुषन्। अग्रगामिना स्वात्मना (हविषा) दातव्येन ग्राह्येण च कर्मणा (देवाः) विद्वांसः (अतन्वत) विस्तारितवन्तः (अस्ति) आसीत् तद्ब्रह्म (नु) अवधारणे। इदानीम् (तस्मात्) पुरुषात् (ओजीयः) ओजस्वी-ईयसुन्, विनो लुक्। बलवत्तरम् (यत्) ब्रह्म (विहव्येन) विविधं दातव्येन व्यवहारेण (ईजिरे) यजेर्लिट्। पूजितवन्तः ॥

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