अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
ऋषिः - यमः
देवता - आपः, अग्निः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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इ॒दं यत्कृ॒ष्णः श॒कुनि॑रभिनि॒ष्पत॒न्नपी॑पतत्। आपो॑ मा॒ तस्मा॒त्सर्व॑स्माद्दुरि॒तात्पा॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । यत् । कृ॒ष्ण: । श॒कुनि॑ । अ॒भि॒ऽनि॒ष्पत॑न् । अपी॑पतत् । आप॑: । मा॒ । तस्मा॑त् । सर्व॑स्मात् । दु॒:ऽइ॒तात् । पा॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं यत्कृष्णः शकुनिरभिनिष्पतन्नपीपतत्। आपो मा तस्मात्सर्वस्माद्दुरितात्पान्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । यत् । कृष्ण: । शकुनि । अभिऽनिष्पतन् । अपीपतत् । आप: । मा । तस्मात् । सर्वस्मात् । दु:ऽइतात् । पान्तु । अंहस: ॥६६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(कृष्णः) कौवे वा (शकुनिः) चिल्ल के समान निन्दित उपद्रव ने (अभिनिष्पतन्) सन्मुख आते हुए (इदम् यत्) यह जो कष्ट (अपीपतत्) गिराया है। (आपः) उत्तम कर्म (मा) मुझको (तस्मात्) उस (सर्वस्मात्) सब (दुरितात्) कठिन (अंहसः) कष्ट से (पान्तु) बचावें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य प्रयत्न करके सब बाहिरी और भीतरी विपत्तियों से बचें ॥१॥
टिप्पणी
१−(इदम्) (यत्) कष्टम् (कृष्णः) श्वाकाक इति कुत्सायाम्-निरु० ३।१८। काक इव निन्दित उपद्रवः। शकेरुनोन्तोन्त्युनयः। उ० ३।४९। शक्लृ शक्तौ-उनि। चिल्ल इव निन्दितः (अभिनिष्पतन्) अभिमुखमागच्छन् (अपीपतत्) पत्लृ अधःपतने-णिचि लुङि रूपम्। पातितवान्। प्रापितवान् (आपः) अ० ६।९१।३। उत्तमानि कर्माणि (मा) माम् (तस्मात्) (सर्वस्मात्) (दुरितात्) दुर्गतात्। कठिनात् (पान्तु) रक्षन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
पदार्थ
१. (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण:) = काली [मलिन] अथवा मन को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली (शकुनि:) = शक्तिशालिनी पाप-वासना (अभिनिष्पतन्) = चारों ओर से बड़े वेग से हमपर आक्रमण करती हुई (अपीपतत्) = हमें गिराती है [काम-वासना प्रद्युम्न है-प्रकृष्ट बलवाली है]। इस वासना में फँसकर मनुष्य पापमय जीवनवाला हो जाता है, यह काम 'महापाप्मा' तो है हो। (तस्मात् सर्वस्मात् दुरितात्) = उस सब दुरित से (अहंस:) = कष्ट के कारणभूत पाप से (मा) = मुझे (आप: पान्त) = वे व्यापक प्रभु रक्षित करें। प्रभुस्मरण इस वासना के संहार का सर्वोत्तम साधन है। २. हे निर्ऋते-आत्मा को नीचे ले-जानेवाली पापप्रवृत्ते! (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण: शकुनिः) = मलिन तथा प्रबल पाप-वासना (ते मुखेन) = तेरे [निति के] मुख से-तेरे द्वारा (अवामक्षत्) = [मृश् संघाते]-नीचे विनष्ट करती-गिराती है। (तस्मात् एनसः) = उस पाप से (मा) = मुझे (गार्हपत्यः अग्नि:) = यह शरीर-गृह का पति, आत्मा का हितकारी, अग्रणी प्रभु (प्रमुञ्चतु) = मुक्त करे। प्रभु का स्मरण पाप से मुक्त करता ही है। ये प्रभु गाई पत्य अग्नि है-अग्रणी हैं और शरीर-गृह के पति जीव का सदा हित करनेवाले हैं।
भावार्थ
कामवासना मलिन होती हुई अति प्रबल है। यह हमें नीचे गिरानेवाली है। हम उस सर्वव्यापक [आप:] अग्नणी [अग्नि] प्रभु का स्मरण करते हुए इस वासना का विनाश करें। ___पाप को नष्ट करके शुद्ध जीवनवाला यह व्यक्ति 'शुक्र नामवाला होता है, शुचितावाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(शकुनिः) शक्तिशाली (कृष्णः) काले तमोगुण ने (निष्पतन्) [मन के] गहरे स्तर से निकल कर, मानो उड़ कर (अभि) मेरी ओर आते हुए, (इदं यत्) यह जो (अपीपतत्) मुझे पतित कर दिया है, (तस्मात्, सर्वस्मात्) उस सब (दुरितात्) दुष्परिणामी (अंहसः) पाप से, (आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर (मा) मुझे (पान्तु) सुरक्षित करे।
टिप्पणी
[अंहसः = “अंहः" का अर्थ पाप होता है। काला पक्षी कौआ, व्यक्ति को घायल तो कर सकता है, पाप में प्रवृत्त नहीं कर सकता। अतः "कृष्णः शकुनिः" का अभिप्राय “शक्तिशाली तमोगुण" प्रतीत होता है। तमोगुण को 'कृष्ण' कहा भी है। यथा अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्" (श्वेत० उप - ४।५)। अजा अर्थात् अजन्मा प्रकृति “सत्वरजस्तमस्रूप" होने के कारण शुक्ल, लाल और कृष्णा है। तमोगुण है भी “ शकुनि” अर्थात् शक्तिशाली। जड़ जगत् सब तमोगुणप्रधान है। प्राणिजगत् भी बहुधा तमोगुणप्रधान है। अतः तमोगुण शक्तिशाली है। मन सत्वगुणी भी होता है, रजोगुणी भी, और तमोगुणी भी। सत्त्वगुणी मन में भी कभी-कभी दबा हुआ तमोगुण प्रकट होकर सत्त्वगुणी व्यक्ति को पतनोन्मुख कर देता है। यह है तमोगुण का उड़कर आ प्रकट होना। आपः = आप्लृ व्याप्तौ = व्यापक परमेश्वर। यथा “तदेवाग्निस्तदादित्य स्तद् वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः (यजु० ३२।१)]।
विषय
पाप से छूटने का उपाय।
भावार्थ
(इदं) यह (यत्) जो (कृष्णः) काला, या मनको अपनी तरफ आकर्षण करने वाला (शकुनिः) शक्तिमान् प्रबल पाप या पाप का भाव (अभि निः-पतन्) चारों ओर से बड़े वेग से हमारे आत्मा पर आवरण करता हुआ, मंडराता हुआ, झपटता हुआ (अपी-पतत्) हमको गिराता है, हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें पाप के मार्गों में ढकेलता है, (आपः) परमात्मा की व्यापक शक्तियां जो मुझे प्राप्त हैं वही (तस्मात्) उस (सर्वस्मात्) सब प्रकार के (दुः-इतात्) दुष्ट-कर्ममय (अंहसः) प्रबल पाप से (पान्तु) बचावें। काले काक के स्पर्श से उत्पन्न पाप से बचने के लिए जल्लों से प्रार्थना मान कर सायण और तदनुयायी पाश्चात्य पण्डितों ने व्याख्या की है वह असंगत है। उन्होंने यम ऋषि और निर्ऋति अर्थात् पाप देवता पर विचार नहीं किया।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। कृष्णः शकुनिर्निर्ऋतिर्वा मन्त्रोक्ता देवता। १ भुरिग् अनुष्टुप्, २ न्यंकुसारिणी बृहती छन्दः। द्वयूचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Safety from Advesity
Meaning
This black and powerful bird-like shadow of dark Tamas, evil, flies from the deep unknown and grips the mind, from which, I pray, may Apah, dynamic spirit of omnipresent Divinity and my own strength of initiative, save me, and absolve me of all that sin and evil.
Subject
Apah
Translation
What this black bird (the crow), flying all around, has dropped, may the waters save me from all that evil sin (woe and trouble):
Comments / Notes
MANTRA NO 7.66.1AS PER THE BOOK
Translation
Let apah the good knowledge and actions guard me from all that evil things and habits which like a flying black bird fall down upon us.
Translation
This fascinating overpowering sin, attacking our soul with great vehemence from all sides, pushes us into the paths of vice. May the inherent forces granted me by God, save and rescue me from all that woe and vice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इदम्) (यत्) कष्टम् (कृष्णः) श्वाकाक इति कुत्सायाम्-निरु० ३।१८। काक इव निन्दित उपद्रवः। शकेरुनोन्तोन्त्युनयः। उ० ३।४९। शक्लृ शक्तौ-उनि। चिल्ल इव निन्दितः (अभिनिष्पतन्) अभिमुखमागच्छन् (अपीपतत्) पत्लृ अधःपतने-णिचि लुङि रूपम्। पातितवान्। प्रापितवान् (आपः) अ० ६।९१।३। उत्तमानि कर्माणि (मा) माम् (तस्मात्) (सर्वस्मात्) (दुरितात्) दुर्गतात्। कठिनात् (पान्तु) रक्षन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
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