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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
    ऋषिः - यमः देवता - आपः, अग्निः छन्दः - न्युङ्कुसारिणी बृहती सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    इ॒दं यत्कृ॒ष्णः श॒कुनि॑र॒वामृ॑क्षन्निरृते ते॒ मुखे॑न। अ॒ग्निर्मा॒ तस्मा॒देन॑सो॒ गार्ह॑पत्यः॒ प्र मु॑ञ्चतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । यत् । कृ॒ष्ण: । श॒कुनि॑: । अ॒व॒ऽअमृ॑क्षत् । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । ते॒ । मुखे॑न । अ॒ग्नि: । मा॒ । तस्मा॑त् । एन॑स: । गार्ह॑ऽपत्य: । प्र । मु॒ञ्च॒तु॒ ॥६६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं यत्कृष्णः शकुनिरवामृक्षन्निरृते ते मुखेन। अग्निर्मा तस्मादेनसो गार्हपत्यः प्र मुञ्चतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । यत् । कृष्ण: । शकुनि: । अवऽअमृक्षत् । नि:ऽऋते । ते । मुखेन । अग्नि: । मा । तस्मात् । एनस: । गार्हऽपत्य: । प्र । मुञ्चतु ॥६६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं से रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (निर्ऋते) हे कठिन आपत्ति ! (ते) तेरे (मुखेन) मुख के सहित (कृष्णः) कौवे अथवा (शकुनिः) चिल्ल के समान निन्दित उपद्रव ने (इदम्) यह (यत्) जो कुछ कष्ट (अवामृक्षत्) एकत्र किया है। (गार्हपत्यः) गृहपति [आत्मा] से संयुक्त (अग्निः) पराक्रम (तस्मात्) उस (एनसः) कष्ट से (मा) मुझ को (प्र मुञ्चतु) छुड़ा देवे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य आत्मपराक्रम करके विघ्नों को हटा कर सुखी रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(इदम्) (यत्) कष्टम् (कृष्णः) म० १। काक इव निन्दित उपद्रवः (शकुनिः) चिल्ल इव निन्दितः (अवामृक्षत्) मृक्ष संघाते-लङ्। राशीकृतवान् (निर्ऋते) हे कृच्छ्रापत्ते (ते) तव (मुखेन) (अग्निः) व्यापकः पराक्रमः (मा) माम् (तस्मात्) (एनसः) कष्टात् (गार्हपत्यः) अ० ५।३१।५। गृहपतिना आत्मना संयुक्तः (प्र) प्रकर्षेण (मुञ्चतु) मोचयतु ॥

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    विषय

    कृष्ण: शकुनि:

    पदार्थ

    १. (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण:) = काली [मलिन] अथवा मन को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली (शकुनि:) = शक्तिशालिनी पाप-वासना (अभिनिष्पतन्) = चारों ओर से बड़े वेग से हमपर आक्रमण करती हुई (अपीपतत्) = हमें गिराती है [काम-वासना प्रद्युम्न है-प्रकृष्ट बलवाली है]। इस वासना में फँसकर मनुष्य पापमय जीवनवाला हो जाता है, यह काम 'महापाप्मा' तो है हो। (तस्मात् सर्वस्मात् दुरितात्) = उस सब दुरित से (अहंस:) = कष्ट के कारणभूत पाप से (मा) = मुझे (आप: पान्त) = वे व्यापक प्रभु रक्षित करें। प्रभुस्मरण इस वासना के संहार का सर्वोत्तम साधन है। २. हे निर्ऋते-आत्मा को नीचे ले-जानेवाली पापप्रवृत्ते! (इदं यत्) = यह जो (कृष्ण: शकुनिः) = मलिन तथा प्रबल पाप-वासना (ते मुखेन) = तेरे [निति के] मुख से-तेरे द्वारा (अवामक्षत्) = [मृश् संघाते]-नीचे विनष्ट करती-गिराती है। (तस्मात् एनसः) = उस पाप से (मा) = मुझे (गार्हपत्यः अग्नि:) = यह शरीर-गृह का पति, आत्मा का हितकारी, अग्रणी प्रभु (प्रमुञ्चतु) = मुक्त करे। प्रभु का स्मरण पाप से मुक्त करता ही है। ये प्रभु गाई पत्य अग्नि है-अग्रणी हैं और शरीर-गृह के पति जीव का सदा हित करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    कामवासना मलिन होती हुई अति प्रबल है। यह हमें नीचे गिरानेवाली है। हम उस सर्वव्यापक [आप:] अग्नणी [अग्नि] प्रभु का स्मरण करते हुए इस वासना का विनाश करें। ___पाप को नष्ट करके शुद्ध जीवनवाला यह व्यक्ति 'शुक्र नामवाला होता है, शुचितावाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (निर्ऋते) हे कृच्छापत्ति ! (ते मुखेन) तेरे मुख द्वारा (इंद यत्) यह जो (कृष्णः शकुनिः) शक्तिशाली काला तमोगुण (अवामृक्षत्) मेरे निचले अङ्गों में आ लगा है, (तस्मात् एनसः) उस पाप से (गार्हपत्य अग्निः) ब्रह्माण्ड गृह का पति [अग्नि [भस्मीभूत कर] (मा) मुझे (प्रमुञ्चतु) प्रमुक्त कर दे, छुड़ा दे।

    टिप्पणी

    [मुखेन= प्रेरणा द्वारा। मुख द्वारा प्रेरणा दी जाती है, मानो कृच्छ्रापत्ति ने हे तमोगुण ! तुझे प्रेरित किया है। अव=नीचे के अङ्ग= मूत्राङ्ग तथा जङ्घा पाद आदि। पापकर्म के लिये पापस्थान पर चलकर जाना होता है। अग्नि परमेश्वर (यजु० ३२।१)। आपः द्वारा पाप = मल धोया जाता है, अग्नि द्वारा वह भस्मीभूत किया जाता है। अवामृक्षत् = अव + अट् (लुङ, लकार) + मृश आमर्शने (छूना) + क्सः (अष्टा० ३।१।४५)]।

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    विषय

    पाप से छूटने का उपाय।

    भावार्थ

    हे (निः-ऋते) आत्मा को नीचे ले जाने वाली निर्ऋते ! पापप्रवृते ! जन्ममरणकारिणी मृत्युदेवते ! (इदं यत्) यह जो (कृष्णः) काला, तामस, मन को अपहरण करने वाला, (शकुनिः) अतिप्रबल विषयविक्षेप हमें, (ते) तेरे (मुखेन) स्वरूप से (अव-अमृक्षत्*) नीचे गिरा देता है, या हम से बन्धन रूप में संसक्त हो जाता है, (तस्मात्) उस (एनसः) पाप से (गार्ह-पत्यः) गार्हपत्य, गृहपति आत्मा का हितकारी प्राणरूप अग्नि ही (मां) मुझको (प्र मुञ्चतु) भली प्रकार मुक्त करे। प्राणायाम के बल से हम पाप से छूटने का उद्योग करें। पाप का संकल्प चित्त में आते ही यदि प्राणायाम करें तो प्रबल पापवासना निर्मूल हो जाती है और मृत्यु का भय भी दूर होता है। प्रथम मन्त्र में प्रभु की शक्तियों के स्मरण से और दूसरे मन्त्र में देह-रूप-गृह के पति आत्मा की मुख्य शक्ति अर्थात् प्राणमय-अग्नि की साधना से पाप से मुक्त होंने का उपदेश है।

    टिप्पणी

    प्रजापतिः गार्हपत्यः। ऐ० ८। २४॥ एष एव (आत्मा) गार्हपत्यो यमो राजा (श० २।३।२।२)। मृश अवमर्शने (तुदादिः०) मृक्ष संघाते (भ्वादिः) इत्यनयोरेकतरस्यरूपम्॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यम ऋषिः। कृष्णः शकुनिर्निर्ऋतिर्वा मन्त्रोक्ता देवता। १ भुरिग् अनुष्टुप्, २ न्यंकुसारिणी बृहती छन्दः। द्वयूचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Safety from Advesity

    Meaning

    This black and powerful bird-like shadow of dark Tamas, evil, O Nir-rti, Adversity, is soiled with the forebodings of calamity, from which. I pray, may Agni, light of omniscience, and the divine fire of home yajna save me and absolve me of evil.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    What this blackbird (the crow), O perdition (Nirtti), has touched me, as if, with your mouth, from that guilt (enasah) may this house-hold fire (garhaptyah) acquit me.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.66.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    Let the house-hold fire keep me away from that evil act and practice which like a black bird comes togather with other complexities through the signal of calamity.

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    Translation

    O sentiment of sin that degrades the soul, this fascinating and overpowering vice, similar to thee in nature debases me morally. May the fervor of my soul save and set me free from all that guilt!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(इदम्) (यत्) कष्टम् (कृष्णः) म० १। काक इव निन्दित उपद्रवः (शकुनिः) चिल्ल इव निन्दितः (अवामृक्षत्) मृक्ष संघाते-लङ्। राशीकृतवान् (निर्ऋते) हे कृच्छ्रापत्ते (ते) तव (मुखेन) (अग्निः) व्यापकः पराक्रमः (मा) माम् (तस्मात्) (एनसः) कष्टात् (गार्हपत्यः) अ० ५।३१।५। गृहपतिना आत्मना संयुक्तः (प्र) प्रकर्षेण (मुञ्चतु) मोचयतु ॥

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