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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 21
    ऋषिः - मयोभूर्ऋषिः देवता - द्रविणोदा देवता छन्दः - आर्षी स्वरः - पञ्चमः
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    उत्क्रा॑म मह॒ते सौभ॑गाया॒स्मादा॒स्थाना॑द् द्रविणो॒दा वा॑जिन्। व॒यꣳ स्या॑म सुम॒तौ पृ॑थि॒व्याऽअ॒ग्निं खन॑न्तऽउ॒पस्थे॑ऽअस्याः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। क्रा॒म॒। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। अ॒स्मात्। आ॒स्थाना॒दित्या॒ऽस्थाना॑त्। द्र॒वि॒णो॒दा इति॑ द्रविणः॒ऽदाः। वा॒जि॒न्। व॒यम्। स्या॒म॒। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। पृ॒थि॒व्याः। अ॒ग्निम्। खन॑न्तः। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अ॒स्याः॒ ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्क्राम महते सौभगायास्मादास्थानाद्द्रविणोदा वाजिन् । वयँ स्याम सुमतौ पृथिव्या अग्निङ्खनन्तऽउपस्थे अस्याः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। क्राम। महते। सौभगाय। अस्मात्। आस्थानादित्याऽस्थानात्। द्रविणोदा इति द्रविणःऽदाः। वाजिन्। वयम्। स्याम। सुमताविति सुऽमतौ। पृथिव्याः। अग्निम्। खनन्तः। उपस्थ इत्युपऽस्थे। अस्याः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 21
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    शब्दार्थ -
    (द्रविणोदा:) जीवन-धन को प्रवाहित करनेवाले (वाजिन्) शक्तिसम्पन्न आत्मन् ! (महते सौभगाय) महान् सौभाग्य के लिए (अस्मात आस्थानात्) इस स्थान से, वर्तमान स्थिति से (उत्क्राम) आगे बढ़ । इस उद्बोधन से उद्बुद्ध होकर हमें चाहिए कि (वयम्) हम (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी के, इस शरीर के (उपस्थे) उपस्थान में, हृदय में (अग्निं खनन्तः) आत्माग्नि को, परमात्माग्नि को खोजते हुए, साक्षात्कार करते हुए उसके (सुमतौ) सुमति में, उत्तम ज्ञान में (स्याम) रहें ।

    भावार्थ - मनुष्य भोग-विलास में फँसकर पशु बन जाता है, नहीं-नहीं, उससे भी नीचे गिर जाता है। वह अपने जीवन के लक्ष्य को, उद्देश्य को भी विस्मृत कर बैठता है। आध्यात्मिक उन्नति का उसे ध्यान ही नहीं रहता। वेदमाता उसे चेतावनी देते हुए कहती है - महान् सौभाग्य के लिए, आत्मदर्शन और ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठ । वेद माता के इस दिव्य सन्देश को प्रत्येक नर और नारी को सुनना चाहिए तथा इसे सुनकर हमें अपने हृदय मन्दिर में आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए । इनका साक्षात्कार कर हमें आत्मा और परमात्मा की सुमति, सुप्रेरणा के अनुसार अपने जीवन को चलाना चाहिए ।

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