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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - शाक्वरगर्भा चतुष्पदा विराडति जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    अ॑भि॒क्रन्द॑न्स्त॒नय॑न्नरु॒णः शि॑ति॒ङ्गो बृ॒हच्छेपोऽनु॒ भूमौ॑ जभार। ब्र॑ह्मचा॒री सि॑ञ्चति॒ सानौ॒ रेतः॑ पृथि॒व्यां तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽक्रन्द॑न् । स्त॒नय॑न् । अ॒रु॒ण: । शि॒ति॒ङ्ग: । बृ॒हत् । शेप॑: । अनु॑ । भूमौ॑ । ज॒भा॒र॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । सि॒ञ्च॒ति॒ । सानौ॑ । रेत॑: । पृ॒थि॒व्याम् । तेन॑ । जी॒व॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: ॥७.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिक्रन्दन्स्तनयन्नरुणः शितिङ्गो बृहच्छेपोऽनु भूमौ जभार। ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः पृथिव्यां तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽक्रन्दन् । स्तनयन् । अरुण: । शितिङ्ग: । बृहत् । शेप: । अनु । भूमौ । जभार । ब्रह्मऽचारी । सिञ्चति । सानौ । रेत: । पृथिव्याम् । तेन । जीवन्ति । प्रऽदिश: । चतस्र: ॥७.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (अभिक्रन्दन्) सब ओर शब्द करता हुआ, (स्तनयन्) गरजता हुआ, (शितिङ्गः) प्रकाश और अन्धकार में चलनेवाला, (अरुणः) गतिमान् [वा सूर्य के समान प्रतापी पुरुष] (भूमौ) भूमि पर (बृहत्) बड़ा (शेषः) उत्पादन सामर्थ्य (अनु) निरन्तर (जभार) लाया है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (पृथिव्याम्) पृथिवी के ऊपर (सानौ) पहाड़ के सम स्थान पर (रेतः) बीज (सिञ्चति) सींचता है, (तेन) उससे (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (जीवन्ति) जीवन करती हैं ॥१२॥

    भावार्थ - विद्वान् पुरुषार्थी ब्रह्मचारी यन्त्र, कला, नौका, यान, विमान आदि वृद्धि के अनेक साधनों से पृथिवी के जल, थल और पहाड़ों को उपजाऊ बनाता है ॥१२॥इस मन्त्र का चौथा पाद-अथर्व० ९।१०।१९, के पाद ४, तथा ऋग्वेद १।१६४।४२, पाद २ में है ॥

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