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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    अ॒मा घृ॒तं कृ॑णुते॒ केव॑लमाचा॒र्यो भू॒त्वा वरु॑णो॒ यद्य॒दैच्छ॑त्प्र॒जाप॑तौ। तद्ब्र॑ह्मचा॒री प्राय॑च्छ॒त्स्वान्मि॒त्रो अध्या॒त्मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मा । घृ॒तम् । कु॒णु॒ते॒ । केव॑लम् । आ॒ऽचा॒र्य᳡: । भू॒त्वा । वरु॑ण: । यत्ऽय॑त् । ऐच्छ॑त् । प्र॒जाऽप॑तौ । तत् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । प्र । अ॒य॒च्छ॒त् । स्वान् । मि॒त्र: । अधि॑ । आ॒त्मन॑: ॥७.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत्प्रजापतौ। तद्ब्रह्मचारी प्रायच्छत्स्वान्मित्रो अध्यात्मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमा । घृतम् । कुणुते । केवलम् । आऽचार्य: । भूत्वा । वरुण: । यत्ऽयत् । ऐच्छत् । प्रजाऽपतौ । तत् । ब्रह्मऽचारी । प्र । अयच्छत् । स्वान् । मित्र: । अधि । आत्मन: ॥७.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    (वरुणः) श्रेष्ठ पुरुष (आचार्यः) आचार्य (भूत्वा) होकर [उस वस्तु को] (अमा) घर में (घृतम्) प्रकाशित और (केवलम्) केवल [सेवनीय] (कृणुते) करता है, (यद्यत्) जो (प्रजापतौ) प्रजापति [प्रजापालक परमेश्वर] के विषय में (ऐच्छत्) उस ने चाहा है। और (तत्) उसको (मित्रः) स्नेही (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (आत्मनः) अपने से (अधि) अधिकारपूर्वक (स्वान्) ज्ञाति के लोगों को (प्र अयच्छत्) दिया है ॥१५॥

    भावार्थ - मनुष्य को योग्य है कि जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी होकर ब्रह्मविद्या का उपार्जन करे और उसको आत्मीय वर्गों में यथावत् फैलावे ॥१५॥

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