अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
य ऋ॒ष्णवो॑ दे॒वकृ॑ता॒ य उ॒तो व॑वृ॒तेऽन्यः। सर्वां॒स्तान्वि॒श्वभे॑षजोऽर॒सां ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठये। ऋ॒ष्णवः॑। दे॒वऽकृ॑ताः। यः। उ॒तो इति॑। व॒वृ॒ते। अ॒न्यः। सर्वा॑न्। तान्। वि॒श्वऽभे॑षजः। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋष्णवो देवकृता य उतो ववृतेऽन्यः। सर्वांस्तान्विश्वभेषजोऽरसां जङ्गिडस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठये। ऋष्णवः। देवऽकृताः। यः। उतो इति। ववृते। अन्यः। सर्वान्। तान्। विश्वऽभेषजः। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
विषय - सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(ये) जो (देवकृताः) उन्मत्तों के किये हुए (ऋष्णवः) हिंसक व्यवहार हैं, (उतो) और भी (यः) जो (अन्यः) दूसरा [खोटा व्यवहार] (ववृते) वर्तमान हुआ है। (तान् सर्वान्) उन सबको (विश्वभेषजः) सर्वौषध (जङ्गिडः) जङ्गिड [संचार करनेवाला औषध] (अरसान्) नीरस [निष्प्रभाव] (करत्) करे ॥५॥
भावार्थ - जो कोई रोग उन्मत्तों के कुकर्म अथवा अपने कुपथ्य से उत्पन्न होवे, मनुष्य जङ्गिड के सेवन से रोगनिवृत्ति करके सुखी रहें ॥५॥
टिप्पणी -
५−(ये) (ऋष्णवः) ग्लाजिस्थश्च ग्स्नुः। पा०३।२।१३९। ऋ हिंसायाम्-ग्स्नु। हिंसकव्यवहाराः (देवकृताः) दिवु कीडाविजिगीषामदादिषु, पचाद्यच्। देवैरुन्मत्तैः कृताः सम्पादिताः (यः) (उतो) अपि च (ववृते) वृतु वर्तने-लिट्। वर्तमानो बभूव (अन्यः) इतरो दुष्टव्यवहारः (सर्वान्) (तान्) (विश्वभेषजः) सर्वौषधः (अरसान्) निष्प्रभावान् (जङ्गिडः) (करत्) कुर्यात् ॥