अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
दु॒र्हार्दः॒ संघो॑रं॒ चक्षुः॑ पाप॒कृत्वा॑न॒माग॑मम्। तांस्त्वं स॑हस्रचक्षो प्रतीबो॒धेन॑ नाशय परि॒पाणो॑ऽसि जङ्गि॒डः ॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽहार्दः॑। सम्ऽघो॑रम्। चक्षुः॑। पा॒प॒ऽकृत्वा॑नम्। आ। अ॒ग॒म॒म्। तान्। त्वम्। स॒ह॒स्र॒च॒क्षो॒ इति॑ सहस्रऽचक्षो। प्र॒ति॒ऽबो॒धेन॑। ना॒श॒य॒। प॒रि॒ऽपानः॑। अ॒सि॒। ज॒ङ्गि॒डः ॥३५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दुर्हार्दः संघोरं चक्षुः पापकृत्वानमागमम्। तांस्त्वं सहस्रचक्षो प्रतीबोधेन नाशय परिपाणोऽसि जङ्गिडः ॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽहार्दः। सम्ऽघोरम्। चक्षुः। पापऽकृत्वानम्। आ। अगमम्। तान्। त्वम्। सहस्रचक्षो इति सहस्रऽचक्षो। प्रतिऽबोधेन। नाशय। परिऽपानः। असि। जङ्गिडः ॥३५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
विषय - सबकी रक्षा का उपदेश।
पदार्थ -
(दुर्हार्दः) कठोर हृदयवालों को, (संघोरम्) बड़े भयानक (चक्षुः) नेत्र को, और (पापकृत्वानम्) पाप करनेवाले पुरुष को (आ अगमम्) मैंने पाया है। (सहस्रचक्षो) हे सहस्र प्रकार से देखे गये ! (त्वम्) तू (तान्) उनको (प्रतिबोधेन) सावधानी से (नाशय) नाश कर, तू (परिपाणः) महारक्षक (जङ्गिडः) जङ्गिड [संचार करनेवाला औषध] (असि) है ॥३॥
भावार्थ - जो मनुष्य जङ्गिड का सेवन करते हैं, वे महाबली होकर शत्रुओं का नाश करते हैं ॥३॥
टिप्पणी -
३−(दुर्हार्दः) दुष्टहृदयान् (संघोरम्) अतिभयानकम् (चक्षुः) दर्शनम् (पापकृत्वानम्) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ०४।११४। पाप+करोतेः-क्वनिप्। पापकर्तारम् (आगमम्) अहं प्राप्तवानस्मि (तान्) (त्वम्) (सहस्रचक्षो) भृमृशीङ्०। उ०१।७। चक्षिङ् दर्शने-उ प्रत्ययः सहस्रप्रकारेण दर्शनं यस्मिन् तत् सम्बुद्धौ (प्रतिबोधेन) सावधानत्वेन। चैतन्येन (नाशय) (परिपाणः) सर्वतो रक्षकः (असि) (जङ्गिडः) संचारशील औषधविशेषः ॥