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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    सूक्त - भरद्वाजः देवता - यमसादनम्, ब्रह्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    स॒प्त प्रा॒णान॒ष्टौ म॒न्यस्तांस्ते॑ वृश्चामि॒ ब्रह्म॑णा। अया॑ य॒मस्य॒ साद॑नम॒ग्निदू॑तो॒ अरं॑कृतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । प्रा॒णान् । अ॒ष्टौ । म॒न्य: । तान् । ते॒ । वृ॒श्चा॒मि॒ । ब्रह्म॑णा । अया॑: । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । अ॒ग्निऽदू॑त: । अर॑म्ऽकृत: ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त प्राणानष्टौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा। अया यमस्य सादनमग्निदूतो अरंकृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । प्राणान् । अष्टौ । मन्य: । तान् । ते । वृश्चामि । ब्रह्मणा । अया: । यमस्य । सदनम् । अग्निऽदूत: । अरम्ऽकृत: ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [हे दुष्ट जीव] (ते) तेरे (तान्) उन [प्रसिद्ध] (सप्त) सात (प्राणान्) प्राणों को और (अष्टौ) आठ (मन्यः=मन्याः) नाड़ियों को (ब्रह्मणा) वेदनीति से (वृश्चामि) मैं तोड़ता हूँ। तू (अग्निदूतः) अग्नि को दूत बनाता हुआ और (अरंकृतः) शीघ्रता करता हुआ (यमस्य) न्यायकारी वा मृत्यु के (सादनम्=सदनम्) घर में (अयाः) आ पहुँचा है ॥७॥

    भावार्थ - सात प्राण अर्थात् दो आँख, दो नथने, दो कान और एक मुख और आठ प्रधान नाड़ियाँ वा अवयव अर्थात् दो-दो दोनों भुजाओं और दोनों टाँगों के हैं। तात्पर्य यह है कि यथादण्ड शत्रु के अङ्गों को छेदकर अनेक क्लेशों के साथ भस्म करके शीघ्र नाश कर देना चाहिये कि फिर अन्य पुरुष दुष्ट कर्म न करने पावें ॥७॥ लिपिप्रमाद से [मन्याः] के स्थान में (मन्यः) पद जान पड़ता है। टिप्पणी–देखिये अथर्ववेद १०।२।६ ॥ कः स॒प्त खानि॒ वि त॑तर्द शी॒र्षणि॒ कर्णा॑वि॒मौ नासि॑के॒ चक्ष॑णी॒ मुख॑म्। येषां॑ पुरु॒त्रा वि॑ज॒यस्य॑ म॒ह्मनि॒ चतु॑ष्पादो द्वि॒पदो॒ यन्ति॒ यामम् ॥ (कः) प्रजापति ने (शीर्षणि) मस्तक में (सप्त) सात (खानि) गोलक (वि ततर्द) खोदे, (इमौ कर्णौ) ये दोनों कान, (नासिके) दो नथने, (चक्षणी) दो आँखें और (मुखम्) एक मुख। (येषाम्) जिनके (विजयस्य) विजय की (मह्मनि) महिमा में (चतुष्पादः) चौपाये और (द्विपदः) दो पाये जीव (पुरुत्रा) अनेक प्रकार से (यामम्) मार्ग (यन्ति) चलते हैं ॥

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