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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - यमसादनम्, ब्रह्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    स॒प्त प्रा॒णान॒ष्टौ म॒न्यस्तांस्ते॑ वृश्चामि॒ ब्रह्म॑णा। अया॑ य॒मस्य॒ साद॑नम॒ग्निदू॑तो॒ अरं॑कृतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । प्रा॒णान् । अ॒ष्टौ । म॒न्य: । तान् । ते॒ । वृ॒श्चा॒मि॒ । ब्रह्म॑णा । अया॑: । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । अ॒ग्निऽदू॑त: । अर॑म्ऽकृत: ॥१२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त प्राणानष्टौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा। अया यमस्य सादनमग्निदूतो अरंकृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । प्राणान् । अष्टौ । मन्य: । तान् । ते । वृश्चामि । ब्रह्मणा । अया: । यमस्य । सदनम् । अग्निऽदूत: । अरम्ऽकृत: ॥१२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सबकी रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे दुष्ट जीव] (ते) तेरे (तान्) उन [प्रसिद्ध] (सप्त) सात (प्राणान्) प्राणों को और (अष्टौ) आठ (मन्यः=मन्याः) नाड़ियों को (ब्रह्मणा) वेदनीति से (वृश्चामि) मैं तोड़ता हूँ। तू (अग्निदूतः) अग्नि को दूत बनाता हुआ और (अरंकृतः) शीघ्रता करता हुआ (यमस्य) न्यायकारी वा मृत्यु के (सादनम्=सदनम्) घर में (अयाः) आ पहुँचा है ॥७॥

    भावार्थ

    सात प्राण अर्थात् दो आँख, दो नथने, दो कान और एक मुख और आठ प्रधान नाड़ियाँ वा अवयव अर्थात् दो-दो दोनों भुजाओं और दोनों टाँगों के हैं। तात्पर्य यह है कि यथादण्ड शत्रु के अङ्गों को छेदकर अनेक क्लेशों के साथ भस्म करके शीघ्र नाश कर देना चाहिये कि फिर अन्य पुरुष दुष्ट कर्म न करने पावें ॥७॥ लिपिप्रमाद से [मन्याः] के स्थान में (मन्यः) पद जान पड़ता है। टिप्पणी–देखिये अथर्ववेद १०।२।६ ॥ कः स॒प्त खानि॒ वि त॑तर्द शी॒र्षणि॒ कर्णा॑वि॒मौ नासि॑के॒ चक्ष॑णी॒ मुख॑म्। येषां॑ पुरु॒त्रा वि॑ज॒यस्य॑ म॒ह्मनि॒ चतु॑ष्पादो द्वि॒पदो॒ यन्ति॒ यामम् ॥ (कः) प्रजापति ने (शीर्षणि) मस्तक में (सप्त) सात (खानि) गोलक (वि ततर्द) खोदे, (इमौ कर्णौ) ये दोनों कान, (नासिके) दो नथने, (चक्षणी) दो आँखें और (मुखम्) एक मुख। (येषाम्) जिनके (विजयस्य) विजय की (मह्मनि) महिमा में (चतुष्पादः) चौपाये और (द्विपदः) दो पाये जीव (पुरुत्रा) अनेक प्रकार से (यामम्) मार्ग (यन्ति) चलते हैं ॥

    टिप्पणी

    ७–सप्त। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१।१५७। इति षप समवाये–कनिन्, तुट् च। सप्तसंख्याकान्। प्राणान्। प्र+अन जीवने–करणे घञ्, प्राणिति जीवत्यनेन। शीर्षण्यानि कर्णनासिकादीन्द्रियानि। अष्टौ। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति अशू व्याप्तौ–कनिन्, तुट् च। अष्टाभ्य औश्। पा० ७।१।२१। इति औश्। अष्टसंख्याकाः। मन्यः। मन धृतौ–क्यप्, स्त्रियां टाप्। लिपिप्रमादेन मन्याः–इत्यस्य स्थाने मन्यः, इति जातमनुमीयते। ग्रीवायाः पश्चात् शिराः। अत्र तु हस्तपादद्वयस्थान् अष्टप्रधानावयवान्। वृश्चामि। छिनद्मि। ब्रह्मणा। वेदज्ञानेन। धर्मेण। अयाः। या प्रापणे–लङ्। त्वं प्राप्तवानसि। यमस्य। यम प्रतिबन्धे–अच्, यमयति नियमयति जीवानां पुण्यापुण्यफलम्। न्यायकारिणः पुरुषस्य। मृत्योः। सादनम्। पद गतौ–ल्युट्, सीदन्त्यत्र। सांहितिको दीर्घः। सदनम्। गृहम्। अग्निदूतः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम्। अग्निर्दूतः अनुचरो यस्य स तथोक्तः। अरंकृतः। ऋ गतौ–अच्, इयर्त्ति गच्छत्यनेनेति अरं शीघ्रम्। शीघ्रीकृतः। शीघ्रं न्यायालये प्राप्तः ॥

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    विषय

    अग्रिदूत-अरंकृत

    पदार्थ

    १. तेरे (सप्त प्राणान) = सप्त शीर्षण्य प्राणों को 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-कानों, नासिका-छिद्रों, आँखों व मुख को' (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (वृश्चामि) = सब विषयों से पृथ्क करता हूँ [Cur asunder] । ज्ञान प्राप्त करके तू आँख आदि को विषयासक्त नहीं होने देता। इसप्रकार तेरे इन सप्त प्राणों को विषयों से पृथक् करके मैं (तान्)  = उन (ते) = तेरे (अष्टौ) = आठों (मन्य:) = [मान्या knowledge] ज्ञान-केन्द्रों को-शरीरस्थ आठों चक्रों को[अष्टाचक्रा नवद्वारा] (वृश्चामि) = छीलकर तीक्ष्ण बनाता हूँ-उनके मलों को दूर करके उन्हें दीस करता हूँ। २. इसप्रकार इन्द्रियों के विषयों से पृथक् होने तथा ज्ञानकेन्द्रों के दीप्त होने पर तू (यमस्य) = उस नियामक प्रभु के (सादनम्) = गृह को अया-प्राप्त होता है-तू ब्रह्मस्थ बनता है। वह तू जो (अग्रिदूतः) = उस अग्रिरूप दूतवाला है, अर्थात् प्रभु से सन्देश प्राप्त करनेवाला है और (अरंकृतः) = ज्ञान व दिव्य गुणों से अलंकृत हुआ है। ३. 'मन को मार लेना' इस वाक्यांश का अर्थ मन को काबू कर लेना है। इसीप्रकार इन्द्रियों व ज्ञानकेन्द्रों के वृश्चन [cutting] का भाव इन्हें पूर्णरूप से वश में कर लेना ही है। जो इन्हें ज्ञान के द्वारा स्वाधीन कर लेता है वह अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करनेवाला होता है। यह प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    इन्द्रियों के संयम और ज्ञानकेन्द्रों के दीप्त होने से मनुष्य अपने जीवन को दिव्य गुणों से अलंकृत करके अन्त में प्रभु को पा लेता है।

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    भाषार्थ

    (ते सप्त प्राणान्) ते रे सात प्राणों को, (तान् अष्टौ मन्यः ) आठ उन धमनियों को, (ब्रह्मणा) वेदाज्ञा द्वारा, (वृश्चामि१) मैं काटता हूँ। (यमस्य सादनम्) यम के घर (अयाः) तू आया है, (अग्निदूतः) अग्नि द्वारा परितप्त होनेवाला, (अरंकृतः) और अलंकृत अर्थात् सुशोभित हुआ।

    टिप्पणी

    [सप्तप्राण= शीर्षस्थ सात गोलकों के सात प्राण। एक मुख का, दो चक्षुओं के, दो नासाछिद्रों के, दो कणों के प्राण। अष्टौ मन्यः="८ धमनियां कण्ठगत नाडीविशेष" (सायण)। अया:= "या प्रापणे" लुङि। अरंकृतः= शवालंकारेण विभूषितः (सायण)। यमस्य सादनम् = श्मशान भूमि। दूतः =दूङ् परितापे (दिवादिः) । जो प्रजाजन अति दुष्ट है और प्रजा में रहने के अधिकार योग्य नहीं, राजदण्डानुसार उसे मृत्युदण्ड मिला है।] [१. राजवधक का वचन है। आसन्नभविष्यद्-घटना अर्थात् दाहकर्म में वर्तमानकाल में प्रयोग है वृश्चामि।]

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    विषय

    तपस्या की साधना

    भावार्थ

    देहबन्धन को ब्रह्मयोग से विनाश करता है। (सप्त प्राणन्) इस देह में सात तो प्राण हैं जो मूर्धास्थान में रहते हैं और (अष्टौ मन्यः) आठ धमनियां हैं। उन सब देहबन्धनकारी साधनों को (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञान से (वृश्चामि) काटता हूं। हे बद्धजीव ! अब तू ( अग्निदूतः ) ज्ञानवान् परमात्मा को उपास्य रूप से अपना एकमात्र सहायक प्राप्त करके ( अरंकृत: ) सुशोभित या पर्याप्त कृतकृत्य होकर ( यमस्य ) संसार के नियन्ता परमेश्वर के ( सादनम् ) परम आश्रय मोक्षस्थान में (अयाः) चला जा और योगाग्नि से युक्त होकर मोक्ष का सुख भोग।

    टिप्पणी

    यमाय सोमं सुनुत यमाय जुहुता हविः। यमं ह यज्ञो गच्छत्यग्निदूतो अरङ्कृतः इति ऋग्वेदे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजप्रव्रस्कं सूक्तम्। भरद्वाज ऋषिः। नाना देवताः। प्रथमया द्यावापृथिव्योः उरूगा यस्यान्तरिक्षस्य च स्तुतिः। द्वितीयया देवस्तुतिः। तृतीयया इन्द्रस्तुतिः। चतुर्थ्या आदित्यवस्वंगिरः पितॄणाम् सौम्यानां। पञ्चम्या, ब्रह्मविराट्तमोऽघ्न्यानां, पष्ठ्या मरुताम् सप्तम्या यमसदनात् ब्रह्मस्तुतिः। अष्टम्या अग्निस्तुतिः। २ जगती । १, ३-६ त्रिष्टुभः । ७, ८ अनुष्टुभौ। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self Protection and Development

    Meaning

    Your seven pranas and eight energy centres, I snap from worldly snares and open up with the word and vision of divinity. With this freedom from bondage, go to the house of Yama, the lord of ultimate dispensation, with light and fire as your medium and enlightenment as your grace of perfection.

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    Subject

    Yama-Sādanam:Brahman

    Translation

    With my prayer, I rend away your seven vital breaths (drawn through two eyes, two ears, two nostrils and one mouth opening) and eight marrows (one in each division of two arms and two legs) (sense-organs). Let you go to the abode of death welladorned, and with fire as your envoy.

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    Translation

    O worldly man; I rend away your seven vital airs and eight marrows through the knowledge of the Veda. You making the effulgence of knowledge your ambassador and celebrated-with perfection attain the asylum of God who is the ordained of all the worlds.

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    Translation

    O soul, I release thee from thy sevenfold vital breath, and eight marrows through the knowledge of the Vedas. Depending upon the Omniscient God, adorned with thy virtuous acts, go to the final resort of God, the Governor of the universe. [1]

    Footnote

    [1] I refers to God, Final resort means salvation. Sevenfold vital breath is drawn through two eyes, two ears, two nostrils and mouth. Eight marrows: one in each arm, hand, leg and foot.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७–सप्त। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१।१५७। इति षप समवाये–कनिन्, तुट् च। सप्तसंख्याकान्। प्राणान्। प्र+अन जीवने–करणे घञ्, प्राणिति जीवत्यनेन। शीर्षण्यानि कर्णनासिकादीन्द्रियानि। अष्टौ। सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति अशू व्याप्तौ–कनिन्, तुट् च। अष्टाभ्य औश्। पा० ७।१।२१। इति औश्। अष्टसंख्याकाः। मन्यः। मन धृतौ–क्यप्, स्त्रियां टाप्। लिपिप्रमादेन मन्याः–इत्यस्य स्थाने मन्यः, इति जातमनुमीयते। ग्रीवायाः पश्चात् शिराः। अत्र तु हस्तपादद्वयस्थान् अष्टप्रधानावयवान्। वृश्चामि। छिनद्मि। ब्रह्मणा। वेदज्ञानेन। धर्मेण। अयाः। या प्रापणे–लङ्। त्वं प्राप्तवानसि। यमस्य। यम प्रतिबन्धे–अच्, यमयति नियमयति जीवानां पुण्यापुण्यफलम्। न्यायकारिणः पुरुषस्य। मृत्योः। सादनम्। पद गतौ–ल्युट्, सीदन्त्यत्र। सांहितिको दीर्घः। सदनम्। गृहम्। अग्निदूतः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम्। अग्निर्दूतः अनुचरो यस्य स तथोक्तः। अरंकृतः। ऋ गतौ–अच्, इयर्त्ति गच्छत्यनेनेति अरं शीघ्रम्। शीघ्रीकृतः। शीघ्रं न्यायालये प्राप्तः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (তে সপ্ত প্রাণান্) তোমার সপ্ত প্রাণকে, (তান্ অষ্টৌ মন্যঃ) আটটি সেই ধমনিকে, (ব্রহ্মণা) বেদাজ্ঞা দ্বারা, (বৃশ্চামি১) আমি ছেদন করি। (যমস্য সাদনম্) যমের ঘরে (অয়াঃ) তুমি এসেছো, (অগ্নিদূতঃ) অগ্নি দ্বারা পরিতপ্ত হবে, (অরংকৃতঃ) এবং অলংকৃত অর্থাৎ সুশোভিত হয়ে।

    टिप्पणी

    [সপ্তপ্রাণ=শীর্ষস্থ সাতটি গোলকের সাতটি প্রাণ। একটি মুখের, দুটি চক্ষুর, দুটি নাসাছিদ্রের, দুটি কর্ণের প্রাণ। অষ্টৌ মন্যঃ="৮ ধমনি কণ্ঠগত নাড়ীবিশেষ” (সায়ণ)। অয়াঃ="যা প্রাপণে" লুঙি। অরংকৃতঃ = শবালংকারেণ বিভূষিতঃ (সায়ণ)। যমস্য সাদনম্ = শ্মশান ভূমি। দূতঃ= দূঙ্ পরিতাপে (দিবাদিঃ)। যে প্রজারা অতি দুষ্ট এবং প্রজাদের মধ্যে থাকার অধিকারযোগ্য নয়, রাজদণ্ডানুসারে সে মৃত্যুদন্ড প্রাপ্ত হয়েছে।] [১. রাজবধক এর বচন; আসন্নভবিষ্যদ্-ঘটনা অর্থাৎ দাহ কর্মে বর্তমানকালে প্রয়োগ হয়েছে বৃশ্চামি। ]

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    मन्त्र विषय

    সর্বরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে দুষ্ট জীব] (তে) তোমার (তান্) সেই [প্রসিদ্ধ] (সপ্ত) সাত (প্রাণান্) প্রাণ-সমূহকে এবং (অষ্টৌ) আটটি (মন্যঃ=মন্যাঃ) নাড়িকে (ব্রহ্মণা) বেদনীতি দ্বারা (বৃশ্চামি) আমি ছিন্ন করি। তুমি (অগ্নিদূতঃ) অগ্নিকে দূত করে এবং (অরংকৃতঃ) শীঘ্রতাপূর্বক (যমস্য) ন্যায়কারী বা মৃত্যুর (সাদনম্=সদনম্) ঘরে (অয়াঃ) এসে পৌঁছেছো/উপনীত হয়েছো॥৭॥

    भावार्थ

    সাত প্রাণ অর্থাৎ দুই চোখ, দুই নাসারন্ধ্র, দুই কান ও এক মুখ এবং আটটি প্রধান নাড়ি বা অবয়ব অর্থাৎ দুটি বাহু এবং দুই পা আছে। তাৎপর্য এটাই, যথাদণ্ড শত্রুর অঙ্গকে ছিন্ন করে অনেক ক্লেশের সাথে ভস্ম করে শীঘ্র নাশ করে দেওয়া উচিত যাতে অন্য পুরুষ দুষ্ট কর্ম না করতে পারে ॥৭॥ লিপিপ্রমাদে [মন্যাঃ] এর স্থানে (মন্যঃ) পদ জানা যায়। টিপ্পণী–দেখো অথর্ববেদ ১০।২।৬ ॥ কঃ স॒প্ত খানি॒ বি ত॑তর্দ শী॒র্ষণি॒ কর্ণা॑বি॒মৌ নাসি॑কে॒ চক্ষ॑ণী॒ মুখ॑ম্। যেষাং॑ পুরু॒ত্রা বি॑জ॒য়স্য॑ ম॒হ্মনি॒ চতু॑ষ্পাদো দ্বি॒পদো॒ যন্তি॒ যামম্ ॥ (কঃ) প্রজাপতি (শীর্ষণি) মস্তকে (সপ্ত) সাতটি (খানি) গোলক (বি ততর্দ) খনন করেছেন, (ইমৌ কর্ণৌ) এই দুই কান, (নাসিকে) দুই নাসারন্ধ্র, (চক্ষণী) দুই চোখ এবং (মুখম্) এক মুখ। (যেষাম্) যার (বিজয়স্য) বিজয়ের (মহ্মনি) মহিমায় (চতুষ্পাদঃ) চতুষ্পদ এবং (দ্বিপদঃ) দ্বিপদী জীব (পুরুত্রা) অনেক প্রকারে (যামম্) মার্গে (যন্তি) চলে ॥

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