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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    सूक्त - पतिवेदन देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - पतिवेदन सूक्त

    आ नो॑ अग्ने सुम॒तिं सं॑भ॒लो ग॑मेदि॒मां कु॑मा॒रीं स॒ह नो॒ भगे॑न। जु॒ष्टा व॒रेषु॒ सम॑नेषु व॒ल्गुरो॒षं पत्या॒ सौभ॑गमस्त्व॒स्यै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽम॒तिम् । स॒म्ऽभ॒ल: । ग॒मे॒त् । इ॒माम् । कु॒मा॒रीम् । स॒ह । न॒: । भगे॑न । जु॒ष्टा । व॒रेषु॑ । सम॑नेषु । व॒ल्गु: । ओ॒षम्‌ । पत्या॑ । सौभ॑गम् । अ॒स्तु॒ । अ॒स्यै ॥३६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सह नो भगेन। जुष्टा वरेषु समनेषु वल्गुरोषं पत्या सौभगमस्त्वस्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । अग्ने । सुऽमतिम् । सम्ऽभल: । गमेत् । इमाम् । कुमारीम् । सह । न: । भगेन । जुष्टा । वरेषु । समनेषु । वल्गु: । ओषम्‌ । पत्या । सौभगम् । अस्तु । अस्यै ॥३६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अग्ने) अग्निवत् तेजस्वी राजन् (सम्भलः) यथाविधि सम्भाषण वा निरूपण करनेवाला वर (इमाम्) इस (सुमतिम्) सुन्दर बुद्धिवाली (कुमारीम्) कुमारी को (नः) हमारेलिये (भगेन सह+वर्त्तमानः सन्) ऐश्वर्य के साथ वर्त्तमान होकर (नः) हममें (आ=आगत्य) आकर (गमेत्) ले जावे। [इयम् कुमारी] [यह कन्या] (वरेषु) वर पक्षवालों में (जुष्टा) प्रिय और (समनेषु) साधु विचारवालों में (वल्गुः) मनोहर है। (अस्यै) इस [कन्या] के लिये (ओषम्) शीघ्र (पत्या) पति के साथ (सौभगम्) सुहागपन (अस्तु) होवे ॥१॥

    भावार्थ - यहाँ (अग्नि) शब्द राजा के लिये है। माता-पिता आदि राजव्यवस्था के अनुसार योग्य आयु में गुणवती कन्या का विवाह गुणवान् वर से करें, जिससे वह कन्या पतिकुल में सबको प्रसन्न रक्खे और आप आनन्द से रहे। इसी आशय को राजप्रकरण में मनु महाराज ने अ० ७।१५२। में वर्णन किया है “[कन्यानां संप्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।] कन्याओं के नियमपूर्वक दान [विवाह] का और कुमारों की रक्षा का [राजा चिन्तन करे]”। (ओषम्) के स्थान पर सायणभाष्य में [ऊषम्] है ॥१॥

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