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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    सूक्त - पतिवेदनः देवता - सूर्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पतिवेदन सूक्त

    भग॑स्य॒ नाव॒मा रो॑ह पू॒र्णामनु॑पदस्वतीम्। तयो॑प॒प्रता॑रय॒ यो व॒रः प्र॑तिका॒म्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भग॑स्य । नाव॑म् । आ । रो॒ह॒ । पू॒र्णाम् । अनु॑पऽदस्वतीम् । तया॑ । उ॒प॒ऽप्रता॑रय । य: । व॒र: । प्र॒ति॒ऽका॒म्य᳡: ॥३६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भगस्य नावमा रोह पूर्णामनुपदस्वतीम्। तयोपप्रतारय यो वरः प्रतिकाम्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भगस्य । नावम् । आ । रोह । पूर्णाम् । अनुपऽदस्वतीम् । तया । उपऽप्रतारय । य: । वर: । प्रतिऽकाम्य: ॥३६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [हे कन्या !] (भगस्य) ऐश्वर्य की (पूर्णाम्) भरी-भरायी और (अनुपदस्वतीम्) अटूट (नावम्) नाव पर (आ रोह) चढ़। और (तया) उस [नाव] से [अपने वर को] (उप प्रतारय) आदरपूर्वक पार लगा, (यः) जो (वरः) वर (प्रति–काम्यः) प्रतिज्ञा करके चाहने [प्रीति करने] योग्य है ॥५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में गृहपत्नी की भारी उत्तरदातृता [ज़िम्मेदारी] का वर्णन है। जैसे नाविक खान-पान आदि आवश्यक सामग्री से लदी-लदायी और बड़ी दृढ़ नौका से जलयात्रियों को समुद्र से पार लगाता है, वैसे ही गृहपत्नी अपने घर को धन-धान्य आदि ऐश्वर्य से भरपूर और दृढ़ रक्खे और पति को नियम में बाँधकर पूरे प्रेम से प्रसन्न रखकर गृहस्थाश्रम से पार लगावे ॥५॥

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