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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
अधा॒ हीन्द्र॑ गिर्वण॒ उप॑ त्वा॒ कामा॑न्म॒हः स॑सृ॒ज्महे॑। उ॒देव॒ यन्त॑ उ॒दभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । हि । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: । उप॑ । त्वा॒ । कामा॑न् । म॒ह: । स॒सृ॒ज्महे॑ ॥ उ॒दाऽइ॑व । यन्त॑: । उ॒दऽभि॑: ॥१००.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा कामान्महः ससृज्महे। उदेव यन्त उदभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअध । हि । इन्द्र । गिर्वण: । उप । त्वा । कामान् । मह: । ससृज्महे ॥ उदाऽइव । यन्त: । उदऽभि: ॥१००.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 100; मन्त्र » 1
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (अद्य हि) अब ही (त्वा) तुझे (महः) अपनी बड़ी (कामान्) कामनाओं को, (उदा) जल [जल की बाढ़] के पीछे (उदभिः) दूसरी जलों की बाढ़ों के साथ (यन्तः इव) चलते हुए पुरुषों के समान हमने (उप) आदर से (ससृज्महे) समर्पण किया है ॥१॥
भावार्थ - जैसे नदी की बाढ़ अति वेग से लगातार चली आती हो और गामों और प्राणी आदि को वहाये ले जाती हो, उसे देख लोग घबड़ाकर भागते हैं, वैसे ही प्रजागण दुष्टों से बचने के लिये राजा की शरण शीघ्र लेवें ॥१॥
टिप्पणी -
यह तृच ऋग्वेद में है-८।९८। [सायणभाष्य ८७]। ७-९, सामवेद-उ० १।१। तृच २३ और मन्त्र १ साम० पू० ।२।८ ॥ १−(अद्य) सम्प्रति (हि) (इन्द्र) महाप्रतापिन् राजन् (गिर्वणः) स्तुतिभिः सेवनीय (उप) पूजायाम् (त्वा) त्वाम् (कामान्) कमनीयान् मनोरथान् (महः) महतः। विशालान्, (ससृज्महे) वय समर्पितवन्तः (उदा) उदकेन। जलप्रवाहेण (इव) यथा (यन्तः) गच्छन्तः पुरुषाः (उदभिः) उदकैः। अन्यजलप्रवाहैः ॥