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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
यु॒ञ्जन्ति॒ हरी॑ इषि॒रस्य॒ गाथ॑यो॒रौ रथ॑ उ॒रुयु॑गे। इ॑न्द्र॒वाहा॑ वचो॒युजा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति । हरी॒ इति॑ । इ॒षि॒रस्य॑ । गाथ॑या । उ॒रौ । रथे॑ । उ॒रुऽयु॑गे ॥ इ॒न्द्र॒ऽवाहा॑ । व॒च॒:ऽयुजा॑ ॥१००.३॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्ति हरी इषिरस्य गाथयोरौ रथ उरुयुगे। इन्द्रवाहा वचोयुजा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । हरी इति । इषिरस्य । गाथया । उरौ । रथे । उरुऽयुगे ॥ इन्द्रऽवाहा । वच:ऽयुजा ॥१००.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(गाथया) प्रशंसा के साथ (इषिरस्य) शीघ्रगामी [राजा] के (उरुयुगे) बड़े जुएवाले, (उरौ) बड़े (रथे) रथ में (इन्द्रवाहा) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को ले चलनेवाले, (वचोयुजा) वचन से जुतनेवाले (हरी) दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) वे [सारथी आदि] जोतते हैं ॥३॥
भावार्थ - राजा धर्म की रक्षा के लिये सुशिक्षित शीघ्रगामी घोड़ों के रथ से चलकर प्रशंसा पावें ॥३॥
टिप्पणी -
३−(युञ्जन्ति) योजयन्ति (हरी) अश्वौ (इषिरस्य) शीघ्रगामिनो राज्ञः (गाथया) गायनीयया प्रशंसया (उरौ) महति (रथे) याने (उरुयुगे) महायुगयुक्ते (इन्द्रवाहा) इन्द्रस्य वोढारौ (वचोयुजा) वचनेन युज्यमानौ। सुशिक्षितौ ॥