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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    सूक्त - सौभरिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१४

    हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत। आ तु॑ नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरि॑ऽअश्वम् । सत्ऽप॑तिम् । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । स: । हि । स्म॒ । य: । अम॑न्दत ॥ आ । तु । न॒: । स: । व॒य॒ति॒ । गव्य॑ति । गव्य॑म् । अश्व्य॑म् । स्तो॒तृऽभ्य॑: । म॒घऽवा॑ । श॒तम् ॥१४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हर्यश्वं सत्पतिं चर्षणीसहं स हि ष्मा यो अमन्दत। आ तु नः स वयति गव्यमश्व्यं स्तोतृभ्यो मघवा शतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिऽअश्वम् । सत्ऽपतिम् । चर्षणिऽसहम् । स: । हि । स्म । य: । अमन्दत ॥ आ । तु । न: । स: । वयति । गव्यति । गव्यम् । अश्व्यम् । स्तोतृऽभ्य: । मघऽवा । शतम् ॥१४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 14; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (सः) वह (हि) ही (स्म) अवश्य [मनुष्य है]; (यः) जिसने (हर्यश्वम्) ले चलनेवाले घोड़ों से युक्त, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक, (चर्षणीसहम्) मनुष्यों को नियम में रखनेवाले [राजा] को (अमन्दत) प्रसन्न किया है। (सः) वह (मघवा) महाधनी (तु) तो (नः) हम (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों को (शतम्) सौ [बहुत] (गव्यम्) गौओं का समूह और (अश्व्यम्) घोड़ों का समूह (आ वयति) लाता है ॥४॥

    भावार्थ - सब प्रजागण आज्ञा मानकर शूर धर्मात्मा राजा को प्रसन्न रक्खें, जिससे वह उत्तम प्रबन्ध के साथ प्रजा का ऐश्वर्य बढ़ावे ॥४॥

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