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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
आ त्वा॑ ब्रह्म॒युजा॒ हरी॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। उप॒ ब्रह्मा॑णि नः शृणु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । हरी॒ इति॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । न॒: । शृ॒णु॒ ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना। उप ब्रह्माणि नः शृणु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । ब्रह्मऽयुजा । हरी इति । वहताम् । इन्द्र । केशिना । उप । ब्रह्माणि । न: । शृणु ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
विषय - राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (ब्रह्मयुजा) धन के लिये जोड़े गये, (केशिना) सुन्दर केश [कन्धे आदि के बालों] वाले (हरी) रथ ले चलनेवाले दो घोड़े [के समान बल और पराक्रम] (त्वा) तुझको (आ) सब ओर (वहताम्) ले चलें। (नः) हमारे (ब्रह्माणि) वेदज्ञानों को (उप) आदर से (शृणु) तू सुन ॥२॥
भावार्थ - जैसे उत्तम बलवान् घोड़े रथ को ठिकाने पर पहुँचाते हैं, वैसे ही राजा वेदोक्त मार्ग पर चलकर अपने बल और पराक्रम से राज्यभार उठाकर प्रजापालन करे ॥२॥
टिप्पणी -
इस मन्त्र का मिलान करो-दयानन्दभाष्य यजु० ८।३४, ३ और अथ० २०।२९।२ ॥ २−(आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (ब्रह्मयुजा) ब्रह्म धननाम-निघ० २।१०। ब्रह्मणे धनाय युज्यमानौ (हरी) रथस्य हारकावश्वाविव बलपराक्रमौ (वहताम्) प्रापयताम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (केशिना) प्रशस्तकेशयुक्तौ स्कन्धादिचिक्कणबालोपेतौ (उप) पूजायाम् (ब्रह्माणि) वेदज्ञानानि (नः) अस्माकम् (शृणु) आकर्णय ॥