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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५

    अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः। प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनी॑:ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑त: ॥ प्र । सोम॑: । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः। प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊं इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनी:ऽइव । अभि । सम्ऽवृत: ॥ प्र । सोम: । इन्द्र । सर्पतु ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (विचर्षणे) हे दूरदर्शी (इन्द्र) इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले पुरुष] (अयम् उ) यही (अभि) सब प्रकार (संवृतः) यथाविधि स्वीकार किया हुआ (सोमः) सोम [महौषधियों का रस], (जनीः इव) कुलस्त्रियों के समान, (त्वा) तुझको (प्र) अच्छे प्रकार (सर्पतु) प्राप्त होवे ॥१॥

    भावार्थ - जैसे कुलस्त्रियाँ अपने सन्तान आदि का हित करती हैं, वैसे ही सद्वैद्यों का सिद्ध किया हुआ महौषधियों का रस सुखदायक होता है ॥१॥

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