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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-९२

    अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे। सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । गोऽप॑तिम् । गि॒रा । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे ॥ सू॒नुम् । स॒त्यस्य॑ । सत्ऽप॑तिम् ॥९२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे। सूनुं सत्यस्य सत्पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । गोऽपतिम् । गिरा । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे ॥ सूनुम् । सत्यस्य । सत्ऽपतिम् ॥९२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (गोपतिम्) पृथिवी के पालक, (सत्यस्य) सत्य के (सूनुम्) प्रेरक, (सत्पतिम्) सत्पुरुषों के रक्षक (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] को, (यथा) जैसा (विदे) वह है, (गिरा) स्तुति के साथ (अभि) सब ओर से (प्र) अच्छे प्रकार (अर्च) तू पूज ॥१॥

    भावार्थ - जैसे राजा उत्तम गुणवाला हो, वैसे ही मनुष्यों को उसकी यथार्थ बड़ाई करनी चाहिये ॥१॥

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