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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 92/ मन्त्र 14
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - पथ्याबृहती सूक्तम् - सूक्त-९२

    तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते। अर्थं॑ चिदस्य॒ सुधि॑तं॒ यदेत॑व आव॒र्तय॑न्ति दा॒वने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । घ॒ । ई॒म् । इ॒त्था । न॒म॒स्विन॑: । उप॑ । स्व॒ऽराज॑म् । आ॒स॒ते॒ ॥ अर्थ॑म् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । सुऽधि॑तम् । यत् । एत॑वे । आ॒ऽव॒र्तय॑न्ति । दा॒वने॑ ॥९२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते। अर्थं चिदस्य सुधितं यदेतव आवर्तयन्ति दावने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । घ । ईम् । इत्था । नमस्विन: । उप । स्वऽराजम् । आसते ॥ अर्थम् । चित् । अस्य । सुऽधितम् । यत् । एतवे । आऽवर्तयन्ति । दावने ॥९२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (तम्) उस (घ) ही (ईम्) प्राप्तियोग्य (स्वराजम्) स्वराजा [अपने आप राजा परमेश्वर] को (इत्था) इस प्रकार (नमस्विनः) नमस्कार करनेवाले लोग (उप आसते) पूजते हैं, (यत्) जब कि वे (अस्य) उस [परमात्मा] का (चित्) ही (सुधितम्) भले प्रकार रक्खा हुआ (अर्थम्) पाने योग्य धन (एतवे) पाने के लिये और (दावने) दान के लिये [उस परमात्मा] को (आवर्तयन्ति) सामने वर्तमान करते हैं ॥१४॥

    भावार्थ - जो परमात्मा अपने आप सबका राजा है, सब लोग उसकी आज्ञा मानकर विविध प्रकार धन प्राप्त करके सुपात्रों का सहाय करें ॥१४॥

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