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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - सीता छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - कृषि

    इन्द्रः॒ सीतां॒ नि गृ॑ह्णातु॒ तां पू॒षाभि र॑क्षतु। सा नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । सीता॑म् । नि । गृ॒ह्णा॒तु॒ । ताम् । पू॒षा । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ । सा । न॒: । पय॑स्वती । दु॒हा॒म् । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥१७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभि रक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । सीताम् । नि । गृह्णातु । ताम् । पूषा । अभि । रक्षतु । सा । न: । पयस्वती । दुहाम् । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥१७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) भूमि जोतनेवाला (सीताम्) हल की रेखा [जुती धरती] को (नि) नीचे (गृह्णातु) दबावे, (पूषा) पोषण करनेवाला [किसान] (ताम्) उस [जुती धरती] की (अभिरक्षतु) सब ओर से रखवाली करे। (सा) वह (पयस्वती) पानी से भरी [जुती धरती] (नः) हमको (उत्तराम्-उत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) अनुकूल क्रिया से (दुहाम्) भरती रहे ॥४॥

    भावार्थ - किसान बीज बोने के पीछे जुती धरती को पटेले से चौरस करके रक्षा करे और यथासमय पानी देता रहे जिससे खेतों में ठीक-ठीक उपज होवे ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० ४।५७।७ में है और इसका उत्तरार्ध अ० ३।१०।१। में आ चुका है ॥४॥

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